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________________ योग शास्त्र ७. [२३ प्राकाम्प ' - जल पर स्थूलवत् चलने की तथा स्थल पर जलवत् डूबने की शक्ति | ८. ईशित्व - तीर्थंकर इन्द्रादि की ॠद्धि की विकर्वणा करने की शक्ति | ६. वशित्व - समस्त प्राणियों को वश करने की शक्ति । १०. अप्रतिघातित्व - पर्वत के अन्दर भी गति करने की शक्ति । ११. अन्तर्धान - अदृश्य होने की शक्ति । १२. काम रूपित्व - इच्छानुसार अनेक रूप बनाने की शक्ति । १३. प्रज्ञा ऋद्धि - श्रुतावरण तथा वीर्यांतराय के क्षयोपशम से चतुर्दश पूर्वी के समान शब्द अर्थ प्ररूपण शक्ति । १४, विद्याधर - रोहिणी आदि विद्या के ज्ञाता दशपूर्वी । १५. बीज बुद्धि - एक अर्थ के श्रवण से अनेक अर्थों का ज्ञान । १६. कोष्ठ बुद्धि - श्रुत किए हुए अर्थों को सदा स्मरण रखना । १७. अनुश्रोत पदानुसारिणी बुद्धि - एक पद को सुन कर सम्पूर्ण ग्रंथ का विवेचन | १८. प्रतिश्रोत पदानुसारिणी बुद्धि - अन्तिम पद को सुन कर सम्पूर्ण ग्रन्थ का विवेचन | १६. उभय श्रोत पदानुसारिणी बुद्धि - मध्यम पद को सुन कर सम्पूर्ण ग्रन्थ का विवेचन | २०. मनोबली - ज्ञानावरण तथा वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से अन्तर्मुहूर्त्त १४ पूर्वी का पुनरावर्त्तन करना । २१. वचन बली - अन्तः मुहूर्त में १४ पूर्वी का वाग् उच्चार करना । २२. काया बली - वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से एक वर्ष तक ध्यानस्थ खड़े रहना । · २३. क्षीरास्रवलब्धि - 1 पात्र में स्थित दूषित अन्न का . २४. मध्वास्रवलब्धि - | क्रमश: दुग्ध, मधु, घृत तथा २५. घृत्रास्रव लब्धि — | अमृत तुल्य बन जाना । २६. अमृतास्रव लब्धि - J For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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