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योग शास्त्र
अर्थ : यथा-बहुकाल से एकत्रित ईंधन को प्रबल अग्नि शीघ्र ही भस्म कर देती है, तथैव, चिरकाल से संचित पापों को, योग क्षण मात्र में क्षय कर देता है।
विवेचन : अग्नि का स्वभाव है-जलाना । अग्नि को 'कुछ भी' जलाने के लिए परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है। योग का स्वभाव है-पापों को समाप्त करना । भव-भव के संचित कर्मों का गाढ़ रूप विपाक के बिना, क्षय होना कठिन है । परन्तु एक चिनगारी गाढ़ तृण समूह को जला सकती है, तो योग की एक छोटी सी किरण पापान्धकार को क्षणमात्र में समाप्त करके अनन्त तिमिर के स्थान पर अनन्त प्रकाश को आविर्भूत क्यों नहीं कर सकती ?
प्राणी के कर्म एकत्र होते-होते ७० कोटा कोटि सागरोपम तक हो सकते हैं, जो कि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति है । कर्मों का प्रवाह नदी जलवत चलता रहता है। नित्य प्रति कर्मों की निर्जरा होती है तथा बन्ध भी होता है । जब तक बन्ध समाप्त न हो, कर्म समाप्त नहीं हो सकते । योग-दो कार्य करता है। बद्ध हो रहे कर्मों पर संवर का प्रतिरोध लगाता है तथा संचित कर्मों को समाप्त कर डालता है । बंध के कारण ही वे समाप्त हो जाते हैं। जहां योग हो, वहां मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, तथा योग अत्यल्प हो जाते हैं । परिणामतः संवर+निर्जरा की युति मोक्ष का कारण बन जाती है।
कफ विपुण्मलामर्ष-सर्वोषधि महर्धपः । ... संभिन्न श्रोतो लब्धिश्च, यौगं तांडवडंबरं ॥८॥
अर्थ : योग से प्राणो का कफ, थूक, मल तथा स्पर्श आदि प्रबल औषधि का कार्य करते हैं । योग से महती ऋद्धियां प्राप्त होती हैं तथा एक ही इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों के विषय ग्रहण करने की शक्ति प्राप्त होती है।
विवेचन : योग शास्त्र में वर्णन है, कि योगियों का
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