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प्रथम प्रकाश प्राणी, कामन, टूमन, मारण, उच्चाटन, स्तम्भन आदि के प्रयोग किया करते हैं। मंत्र-तंत्र के प्रयोग शीघ्रता से सिद्ध नहीं होते. हो भी जाएं, तो जंजाल रूप होते हैं। सिद्धियां सूरीति से, उत्तर साधक की दृढ़ता से, साधी जाएं, तो वे सीधी हैं अन्यथा इन सिद्धियों को उल्टी पड़ते भी विलम्ब नहीं होता।
— महर्षियों के कथनानुसार मोक्ष लक्ष्मी अथवा मुक्ति वधू को प्राप्त करने में किसी मन्त्र का जाप करने की आवश्यकता नहीं। तन्त्र के किसी प्रयोग की आवश्यकता नहीं तथा किसी जड़ी बूटी (वक्ष-मल) आदि की भी आवश्यकता नहीं। अर्थात मन्त्रादि से मोक्ष की प्राप्ति हो, तो उस में अतिविलम्ब से कार्य सिद्धि होगी। यदि योग को स्वीकार किया जाए, तो मोक्ष की प्राप्ति अति सरल हो जाए। __ अर्थात् मुमुक्षु जीव को समस्त कियाओं को, शनैः-शनैः छोड़ कर योग की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। ..
भूयांसोऽपि हि पाप्मान: प्रलयं यांति योगतः ।
चण्डवाताद घनघनाः घनाघनघटा इव ॥६॥ अर्थ-यथा अतिवेगी प्रचण्ड वाय से अतिगहन बादलों के समह बिखर जाते हैं, तथैव योग के प्रभाव से अति भारी तथा अत्यधिक पाप भी विपाक दिए बिना समाप्त हो जाते हैं।
विवेचन : यहां स्पष्ट है, कि शास्त्रकार को स्थल शब्दों में निर्जरा तथा संवर ही योग के रूप में अभीष्ट है। क्योंकि पापों की समाप्ति निर्जरा से होती है । निर्जरा शुभ कर्मों से होती है । अतः परम्परा से शुभ कर्मों को योग शब्द से अभिहित किया जाना अनुचित नहीं है।
ग्रंथकार को योग का अर्थ संवर के रूप में कैसे इष्ट है ? इस का वर्णन आगामी पृष्ठों में किया जाएगा।
क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि, क्षणादेवाशु शु क्षणिः ॥७॥
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