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योग शास्त्र
[१६ कर रहा हूं। १. शास्त्र रूपी सागर में से कुछ भाग जान कर, २. गुरु परम्परा से प्राप्त कर, ३. तथा अपने अनुभव से ।
विवेचन : योग के विषय में स्वानुभव का अत्यधिक महत्त्व है। योग का सम्बन्ध सीधा आत्मा के साथ है, अतः वह अनुभव का विषय है। पुराकाल में योग की परम्परा का कोई आधार था । गुरुगम की उसमें प्रधानता थी। प्राचीन ग्रंथों में योग प्रदीप एवं पालजल योग दर्शन जैसे ग्रन्थ, इस विषय पर उपलब्ध हैं। योग के सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य को जैन परम्परा का पर्याप्त ज्ञान रहा होगा। इस ग्रन्थ के अन्तिम प्रकाशों में वे 'योग' का अनुभव तथा तर्क संगत स्वरूप वर्णित करते हैं।
वर्तमान में 'योग' तथा विशेषतः 'जैन योग' की परिपाटी लुप्तप्रायः हो चुकी है। कतिपय योगियों के पास वर्तमान में भी सुरक्षित है, परन्तु योग रुचि लोगों की अल्पता होने के कारण उसे भी सुरक्षित रखना कठिन हो रहा है । हेमचन्द्राचार्य शास्त्रों के गहन अभ्यास से योग के विषय में जो कुछ प्राप्त कर सके, वह इस पुस्तक में आगे प्रस्तुत कर रहे हैं।
. योगः सर्वविपद्वल्ली-विताने परशुः शितः । __ अमूल मन्त्र तन्त्रं च, कार्मणं निर्वृतिश्रियः ॥५॥
अर्थ : योग समस्त विपत्ति रूपी लताओं को काटने के तीक्ष्ण कुल्हाड़े के समान है तथा मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति का ऐसा कामन प्रयोग (कामण) है, जिस में कोई मंत्र, तत्र या जड़ी बूटी का कार्य विद्यमान नहीं है।
विवेचन : ग्रंथकार संसार की समस्त आधि-व्याधिउपाधियों को तथा रोग, शोक, भय. जरा, मरण आदि को विपत्ति के एकमात्र नान से अभिहित करते हैं। ये विपत्तियां योग रूपी कुल्हाड़े से छिन्न भिन्न हो जाती हैं।
इस विश्व में विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए संसार के सभी
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