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________________ योग शास्त्र [१७ महावीर की अप्रमत्तता का सन्मान एक अभव्य कर भी कैसे सकता था ? ___संगम ने प्रभु से कहा, "प्रभो ! चलिए ! आप को देवलोक ले चलता हूं। आप की मनवांछित वस्तु मैं आप को दे दूंगा।" परन्तु महावीर तो देवलोक के सुखाभास से पहले ही त्रस्त थे। ___ संगम ने महावीर को उन के माता पिता सिद्धार्थ तथा त्रिशला का करुण क्रन्दन सुनाया, कि वे बहुत दुःखी हैं । परन्तु मोह नाशक महावीर में मोह निःशेष हो रहा था। षड् ऋतु का सुन्दर, कामाग्नि प्रज्वलित करने वाला वातावरण, गीत-नृत्य, मेघ की भयंकर गर्जना महावीर की अचलता के सम्मुख तुच्छ वस्तुएं थीं। आत्मा के आनन्द, की अनुभूति करने वाले योगी को संसार के विषयों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। अन्त में १००० भार का कालचक्र भी महावीर पर फेंका गया। महावीर उस से धरती में धस गए। ____ अन्त में इन्द्र की वाणी को सत्य समझ कर, वह निर्लज्ज देव, महावीर को नमन करके जब चलने लगा, तो महावीर की आंखों में आंसू देख कर चौंक उठा। “अरे महावीर ! आप इतने उपद्रवों में अचल रहे, अब ये आंसू कैसे ?" भगवान् ने कहा, "संगम ! मैं जगत का कल्याण करने वाला हूं। तू मुझे दुःख देकर कलुषित भावों के कारण दुर्गति में जा कर अनेकविध कष्ट सहन करेगा। मैं इस पापोपार्जन में निमित्त बना। मैं इस पाप से दूर करने में तेरा सहायक न बन सका। इस बात का मुझे दुःख है । हा ! तेरा क्या होगा?" योग बल से प्रभु महावीर को अनेक सिद्धियों की प्राप्ति हो चुकी थी, वे उन सिद्धियों के बल पर संगम देव को दूर हटा सकते थे । परन्तु प्रभु महावीर का मार्ग संसार के मार्ग से भिन्न था। वे मन, वचन, काया से किसी का बुरा न कर सकते थे । अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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