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प्रथम प्रकाश दृढ़ भूमि (संभवतः अरुणांचल प्रदेश) में ध्यानस्थ महावीर को, इन्द्र के द्वारा कृत प्रशंसा से व्याकुल संगम देवता (अभव्य). ने, ६ मास तक निरन्तर कष्ट देते हुए, शद्ध गौचरी की प्राप्ति में, प्रतिदिन, जो बाधा उपस्थित की, उस से भी महावीर अचल रहे । संगम देव ने धुलि की वृष्टि से प्रभु महावीर के नासिका कर्ण के छिद्रों को बन्द कर दिया। उन का श्वासोच्छ्वास रुक गया। उस ने तीक्ष्ण मुखी कीडियां बना कर उन के द्वारा महावीर के शरीर को दंश लगाया। प्रभु महावीर का मुख छलनी के समान छिद्र युक्त बन गया।
वींछी तथा नोलिया आदि के उपसर्ग हुए । चक्रवात ने भगवान महावीर को घंटों तक गोल-गोल घुमाया । तूफान ने प्रभु को कई योजन दूर पटका । ग्वालों ने पैरों में चल्हा जलाया। भीलों का उपद्रव हुआ। पिशाच ने भयभीत किया। मच्छरों के द्वारा डंस मारने से प्रभु के शरीर से रुधिर की नदियां प्रवाहमान हो गईं। सिंह, हस्ती, सर्प, चहे, तोते बना कर उस ने महावीर को अतिशय पीडित किया। उपसर्गों की अधिकता से भगवान महावीर के सामर्थ्य की परीक्षा हो रही थी तथा उन का सत्त्व एवं ओजस् वृद्धिगत हो रहा था।
__तदनंतर संगम ने १६ शृगार से सुसिज्जत षोड़शियां तथा देवियां बना कर, प्रभ महावीर को विचलित करने का प्रयत्न किया। उन के हावभाव, कटाक्ष, भंगिमाएं किसी भी योगी को योग पथ भ्रष्ठ करने को पर्याप्त थीं, परन्तु महावीर मेरु सदृश अकंपित थे।
संगम देव प्रभु की आत्मरमणता (सहज समाधि) को न समझ सका। महावीर की भौतिक सुखों के प्रति उपेक्षा को, वह बुद्धि का विषय न बना सका । संसार से अलिप्त, संसार के दु.खों के ज्ञाता, स्वयं के दुःखों के मात्र साक्षीभाव से द्रष्टा, मोक्षेच्छु
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