SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४] प्रथम प्रकाश धर्म स्थान में आ कर अशांति फैलाने वाला सब से बड़ा दुष्ट होता है। जहां परमात्मा की कृपा का सम्पादन होता. हो, वहां पर उसी परमात्मा के सिद्धांतों की अवहेलना, आज्ञाओं का उल्लंघन घोरतम पाप है । भगवान महावीर तो सर्वत्र 'सम' थे । क्या हम धर्म के प्रांगण में भी 'सम' नहीं हो सकते ? संकीर्ण मन में सत्य का प्रवेश कदापि नहीं हो सकता । आचार्य देव श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि जी महाराज के शिक्षा प्रचार, साधर्मी सेवा, प्रगतिवाद, जैसे सिद्धांतों का विरोध करने वाले, आज यदि उसी मार्ग को स्वीकार करते हैं, तो मनोविज्ञान की कसौटी पर यह सिद्धांत सत्य सिद्ध होता है, कि शुद्ध मानसिकता की प्रगति ( development ) सभी में एक रूप से, एक समय या वय में नहीं होती । किसी को युग की नब्ज को परखने की बुद्धि का भंडार १० वर्ष पहले प्राप्त हो जाता है, तो किसी को १० वर्ष बाद । गुरुओं तथा भक्तों के नाम पर धर्म तथा श्रद्धा को नीलाम मत करो। संप्रदायवाद की दीवारों को तोड़ो तथा भगवान महावीर स्वामी के समत्व को लक्ष्य बिन्दु बना कर सच्चे जैन बन जाओ । उपकारी गुरु एक हो सकता है, उस के प्रति कृतज्ञ रहना अनिवार्य है, परन्तु अनेक गुरुओं की सेवा करने में, वह गुरु ही बाधक बन जाए, तो वह गुरु कैसा ? एक बार एक बौद्ध साधु हमारे व्याख्यान में आए। हमने सौहार्द से उन्हें प्रवचन के लिए समय दिया। उन्होंने भी भगवान महावीर का गुणगान किया तथा कहा, कि "भगवान बुद्ध जैन साधु बने थे । इसीलिए उन के धर्म में जैन दृष्टि का दर्शन होता हैं ।" कहिए ! हम उस बौद्ध साधु को प्रवचन का समय दे कर क्या हानि में रहे ? प्रेम से प्रेम मिलता है, तो घृणा घृणा । आप भी प्रेम दीजिए । प्रेम की प्रतिक्रिया, प्रेम के रूप में मिलेगी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy