SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२] प्रथम प्रकाश _ विवेचन : समय समय पर सौधर्मादि इन्द्र प्रभ की सेवा में उपस्थित होते थे, परन्तु भगवान महावीर को अपने भक्तों पर न मोह था, न अनुराग । वे प्रशंसा तथा भक्ति से फूलते नहीं थे। चंडकौशिक सर्प-जिस ने अतीत के साध तथा तापस के भव में क्रोध के कारण सर्प योनि में जन्म लिया था, भगवान महावीर के द्वारा 'बुज्झ-बुज्झ चंडकोसिया !" हे चंडकौशिक ! समझ ! - समझ ! इन शब्दों से प्रतिबोधित होने पर प्रायश्चित तथा अनशन करके सहस्रार नाम के ८ वें देवलोक में गया था। इसी चंडकौशिक ने भगवान महावीर को अरण्य में डंक लगाया था, परन्तु भगवान महावीर तब भी शांत रहे। उन्हें सर्प पर वैर या द्वष का भाव आविर्भूत न हुआ। यह समत्व ही भगवान महावीर की साधना का रहस्य है । तभी तो भगवान ऋषभ देव जिन कर्मों का क्षय १००० वर्ष की छद्मस्थ अवस्था में कर सके, उस से भी अधिक कर्मों का क्षय भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष की साधना में किया। वर्तमान का कोई साधक १२ जन्म में भी उतने कर्मों का क्षय कर सके, तो आश्चर्य ही होगा । भगवान महावीर को प्रायः एक पहल से देखा जाता है । तप, संयम तथा अहिंसा में उन के बाह्य रूप का वर्णन ही शास्त्रों में अधिक प्राप्त होता है। वस्तुतः वे जितने बाह्य तपस्वी थे, उस से अधिक वे आभ्यन्तर तपस्वी थे। छ:-छ: मास की तपस्या उन की आंतरिक तपस्या (क्रोधादि दहन) के समक्ष-महत्वहीन थी। भगवान महावीर का बाह्य-संयम, उन के आंतरिक संयम (मन, वचन नियन्त्रण) से अधिक महत्त्व पूर्ण माना जा सकता है ? उन की बाह्य-अहिंसा (जीव रक्षा) से आन्तर-अहिंसा - (करुणा तथा मैत्री) अनन्तगणा थी। भगवान महावीर का तप भी सहज था । वे कभी उपवासों की गणना नहीं करते थे। उपवास में कभी उन्होंने भोजनपान या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy