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प्रथम प्रकाश क्योंकि न्यायशास्त्र ने योगिज ज्ञान को स्वीकार किया है तथा उसे प्रामाणिक भी माना है । योग के द्वारा या किसी अन्य कारणे से दीवार के पार स्थित वस्तु को अथवा हज़ारों मील दूर स्थित वस्तु को देखने वाले आज भी विद्यमान हैं । अतः योगिराज भगवान महावीर को नमस्कार करना युक्ति संगत ही है।
(४) महावीराय : देवेन्द्र ने वर्द्धमान कुमार की परीक्षा लेने के बाद उन का नाम महावीर रखा । यह नाम किस ने दिया, इस बात का कोई विशेष मूल्य नहीं । महावीर के नाम या गणों के स्मरण से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। उस समय यह स्मरण नहीं होता, कि यह नाम किस ने रखा है। प्रत्येक व्यक्ति का नामकरण किसी न किसी के द्वारा किया जाता है, परन्तु जीवन भर यह कोई स्मरण नहीं करता, कि मेरा नाम किस ने रखा था। भ० महावीर के विभिन्न नाम विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । महावीर 'सन्मति' तब बने, जब उन्होंने दुर्बुद्धि लोगों के समक्ष भी सद्बुद्धि का परिचय दिया। वे 'वर्द्धमान' तो धन धान्य की वृद्धि के कारण बाल्य काल से ही बने थे। वे 'देवार्य' तब बने, जब वे मानव होने पर भी अपने गुणों से देवों की परिषद् के सभ्य बने।
विश्व में एकमात्र वर्द्धमान तीर्थंकर हैं, जो शस्त्र-अस्त्र से रहित होने पर भी महावीर कहलाए। शस्त्रधारी योद्धाओं को तो महावीरचक्र प्रदान किया जाता है । किन्तु महावीर ने निःशस्त्र होकर भी कर्म सुभटों से युद्ध किया तथा विजयी हुए। कवि ने कहा है
बाहु बलेन न शूरः, शास्त्रज्ञानान्न पंडितः ।
न वक्ता वाक् पटुत्वेन, न दाता चार्थ दानतः ॥ अर्थात् बाहबल से कोई शूरवीर नहीं होता। शास्त्रों के ज्ञान, से कोई पंडित नहीं बन जाता । वाचा के कौशल से कोई वक्ता नहीं होता तथा धन के दान से कोई दानी नहीं बन जाता।
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