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योग शास्त्र हैं । प्रश्न हो सकता है, कि भगवान महावीर जब मन के विचारों से रहित हैं, तो वे सम्यक् विचार के अभाव में उपदेश कैसे देते होंगे? भाषा तथा उपदेश की धारा विचारों के अभाव में टती न होगी ? समाधान है, कि छद्मस्थ जीव के लिए भाषा धाराप्रवाहिता तथा उपदेश वृत्ति के लिए विचारों का सम्यक् होना आवश्यक है, परन्तु सर्वज्ञ, सर्वदर्शी के लिए यह आवश्यक नहीं। सर्वज्ञ प्रभु जब समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को, त्रिकाल में हस्तामलकवत् जानते हैं तथा देखते हैं, तो विचार किस बात का होगा ? विचार संदिग्ध तथा अस्पष्ट के विषय में होता है । परमात्मा के ज्ञान में सम्पूर्ण जगत के भाव, असंदिग्ध एवं स्पष्ट हैं। सत्य दृष्ट वस्तु के निरूपण के समय, वे स्वभाव से अपने ज्ञान बल से प्रवचन देते हैं।
भगवान महावीर योगी होने के कारण अनेक शक्तियों तथा सिद्धियों से परिपूर्ण थे, परन्तु उन्हें अपनी शक्ति के प्रदर्शन की आवश्यकता ही नहीं थी।
भगवान महावीर योगी थे, अतः प्रत्यक्ष द्रष्टा थे। न्यायादि दर्शन, ईश्वर को तथा आत्मा को व्यापक मानते हैं। योगी, स्वज्ञान के द्वारा जगत् के भावों को देखते हैं तथा जानते हैं । ज्ञान की दृष्टि से योग आत्मा का विषय है अतः आत्मा या परमात्मा को व्यापक मानने में मी कोई बाधा नहीं आती !
वेदान्त दर्शन में केवल ज्ञानी को सदेह मुक्त कहा जाता है । वहां देह होने के कारण काया का योग विद्यमान है। जहां योग है-वहां कर्म बन्ध है। केवल ज्ञानी का कायिक योग के द्वारा उद्भुत बन्धन समय मात्र का होता है, तत्पश्चात् अगले ही समय में वह निर्जरित हो जाता है। . . ' आचार्य हरिभद्र सूरि जी ने कहा है, कि प्रत्येक क्रिया में बन्धन है । वह बन्धन निकाचित या स्थायी न हो, तो अल्पसमयी भी हो सकता है। योगी होने पर प्रत्यक्षद्रष्टा होना असिद्ध नहीं है,
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