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प्रथम प्रकाश
सूरीश्वर जी म० ने कई व्यक्तियों को जो कि उनके पास दीक्षा लेने आते थे, वाराणसी में शिक्षा अर्जन के लिए भेजा, 'परिणामतः शिक्षित होने के पश्चात् उन्होंने दीक्षा लेने का विचार छोड़ दिया तथा वे समाज सेवा के कार्यों में लग गए । आचार्य समुद्र सूरीश्वर जी महाराज तथा आचार्य जनक चन्द सूरीश्वर जी म० ने भी अपने होने वाले कई शिष्य अन्य साधुओं को अर्पित कर दिए । आगम प्रभाकर, श्री पुण्य विजय जी महाराज को जब आचार्य पद ग्रहण करने की विनति की गई, तो उन्होंने नम्रता से उत्तर दिया, कि मेरे से साधुत्व की सच्ची साधना भी पूर्णतया नहीं हो पा रही, अतः आचार्य पद लेकर मैं क्या करूंगा ?
क्या निःस्पृहता है, इन मुनि रत्नों की ! योग्यता हो तो शिष्यों तथा पदवी के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं होती ।
वर्तमान में धार्मिक कहलाने वाले लोग भी कितने योग्य हैं ? यह एक शोचनीय प्रश्न है । धार्मिक व्यक्ति में यदि क्रोधादि कम नहीं होते, समन्वय की भावना का विकास नहीं होता, कदम-कदम पर आत्मिक प्रगति के चिन्ह दिखाई नहीं देते, उस में ज्ञान तथा विवेक की योग्यता नहीं आती, तो वह व्यक्ति धार्मिक कैसा ? अंशत: अर्ह ( गुण योग्य) बन जाने पर भी व्यक्ति में पूज्यता का आधान होता है । भगवान महावीर पूर्ण योग्य हैं, अतएव वे पूजातिशय से युक्त हैं ।
(३) योगिनाथाय - भगवान महावीर योगियों में मुकुट के समान हैं । 'योग' शब्द की परिभाषा 'योग सिद्धि' प्रकरण में की जाएगी। जो मन वचन तथा काया के योगों को वश में कर लेता है- वही. योगी हो सकता है । योग निरोध से योगी, परमात्म पद को पा लेता है । योगी प्रत्यक्षदर्शी भी हो सकता है, योगी को अवधि ज्ञान की प्राप्ति दुरूह नहीं होती ।
भगवान महावीर योगी हैं इन्द्रियविजयी हैं, मन पर उनका पूर्ण नियन्त्रण है । मन के भाव (विचार) भी उनके शेष नहीं रहे
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