________________
६]
प्रथम प्रकाश
आत्म विजयी बनना ही कठिनता की पराकाष्ठा है । 'स्व' में नियंत्रित रहना, 'पर' का मोह छोड़ देना, लालसा, इच्छा, क्रोधादि कषायों से विमुख हो जाना, इन्द्रियों का वशीकरण, यही सबसे कठिन है । यही कठिन कार्य महावीर ने किया, अतएव वे महावीर हैं, शूरवीर हैं । वे महावीर हैं, अतएव वन्द्य हैं । वे वन्द्य हैं, अतएव ग्रन्थारम्भ में स्तुत्य हैं ।
जब परिवार तथा स्नेही मित्रों पर राग होता है, तभी अन्यों परद्व ेष होता है । राग तथा मोह का त्याग सुखी होने का एक मात्र उपाय है ।
(२) अर्हते - 'अर्हन्' शब्द मुख्यतः 'योग्य' वाची है । जैन शासन में गुण सम्पन्न योग्य व्यक्ति को हीं नमस्कार किया है । नवकार मंत्र के पांच पदों में किसी व्यक्ति विशेष को महत्त्व नहीं दिया गया, मात्र गुणवान् को ही पूज्य कहा गया है। जैन प्रवचन का स्पष्ट उद्घोष है कि
“गुणा: पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग न च वयः "
अर्थात् - गुण ही पूज्य हैं, वेष या विशेष अवस्था नहीं । जैन धर्म के अनुसार, नाम भेद के बिना, कोई भी जैन जैनेतर दर्शन मान्य साधु या ईश्वर गुणों के आधार पर पूज्य हो सकता है ।
अ+र्+ह=अर्ह—–इस पदच्छेद के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जैसी शक्तियों को भी अर्ह पद में समाविष्ट किया जा सकता है । ब्रह्मा का ब्रह्मत्व अथवा रचना प्रवृत्ति ( उपदेश के द्वारा भव्य जीवों में धर्म रचना ), विष्णु की व्यापकता तथा शिव (महेश) की मंगलमयिता भी, तीर्थंकर - ईश्वर में पूर्णतः घटित होती है ।
'अर्हत्', अरहंत होने के अतिरिक्त भगवान् महावीर अरिहंत भी हैं, क्योंकि वे समस्त अन्तरङ्ग शत्रुओं का हनन कर चुके हैं । वे अरूहन्त भी हैं, क्योंकि वे कर्म बीज का दहन कर देने के कारण पुनः उत्पन्न नहीं होते ( अ + रुह ) । अतएव 'नमो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org