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________________ योग शास्त्र ___ आचार्य हेमचन्द्र का कथन है, कि हमें नाम से कोई प्रयोजन नहीं, काम से प्रयोजन है। भव-वृक्ष के बीज रागादि, जिसके समाप्त हो चुके हैं, उन को ही ईश्वर मान कर नमस्कार करना चाहिए। एकधा कर्म बीज के नष्ट हो जाने पर पुनः कर्मोत्पत्ति का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं बनता है, अतः कर्म-राग-द्वेष-रहित वह ईश्वर निष्कर्म, अजर, अमर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अचल, अरूप, अनन्त, अक्षय, अव्याबाधसूख, अपूनरावत्तिधर्मा के रूप में ही ज्ञेय है। रागद्वषादि शत्रुओं को धूलिसात करने के लिए ही हमारी साधना-उपासना है । बाह्य जगत् पर विजय प्राप्त कर लेने से कोई शूरवीर नहीं बन जाता । आंतरिक शत्रुओं तथा स्व इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने से ही शरवीरता का अलंकरण यथार्थनामा होता है. अतएव कवि ने चार व्यक्तियों के आभ्यन्तर लक्षणों का विवरण देते हुए एक श्लोक में कहा है इन्द्रियाणां जये शूरः .. ............। शतेषु जायते शूरः..... ......॥ अर्थात् १०० में एक शूरवीर हो सकता है , परन्तु सच्चा शूरवीर - जो कि स्वीय इन्द्रियों को विजित करता है-लाखों में एक होता है। इसी संदर्भ में ही महावीर की महावीरता का दर्शन करना है । यदि महावीर इन्द्रियजयी न होते, तो वे महावीर भी न होते। जो व्यक्ति सर्वतः कठिन कार्य करता है, वही तो शूरवीर होता है। विश्व का सर्वाधिक काठिन्यपूर्ण कार्य कौन सा है ? शत्रुओं पर शस्त्र-अस्त्रों से विजय पाना ? विनाशकारी बमों का आविष्कार कर लेना ? परिणाम को दृष्टिविगत करते हुए भौतिकवाद का विकास करते जाना ? आत्मीय शक्तियों की विस्मृति ? या कुछ और ? कहना ही होगा, कि यह सब नगण्य है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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