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________________ २७८] अपरिग्रह निश्चित ही मृत्यु की घंटी हैं । धनी का धन भी उस के शरीर के रक्त के समान है। यदि धन रुक जाता है तो धनी व्यक्ति को हार्ट फेल, हार्ट अटैक हो सकता है। धन, धनी के खजाने में जमा रहे तो रक्त के जमा होने का भय उत्पन्न करता है । प्रायः धनी व्यक्ति ही अधिक ब्लड प्रेशर, तनाव तथा हार्ट के रोगों के शिकार होते हैं। धनी पर कृपण व्यक्ति स्वेच्छा से तो धन छोड़ता नहीं है, प्रकृति उसे सबक सिखाती है तथा उस को ८० वर्ष तक पहुंचने के बहुत पहले ही धन से मुक्त कर देती है । जो बिल्कुल दान नहीं करता उसे अन्त में सर्वस्व दान करके जाना पड़ता है। भगवान महावीर ने परिग्रह को पापानुबंधी पुण्य बताया है। पुण्य से धन तो मिल जाता है परन्तु फिर पाप का ही कारण बनता है। अतएव मानव को ऐसे धन से बचना चाहिए। संसार में धन का सदुपयोग अत्यन्त अल्प होता है, धन का दुरुपयोग ही अधिक होता है । धन का व्यय सत्कार्य, उपकार, सेवा, दान में कम होता है जब कि नशा, मकद्दमा, भोजन, परिधान, ऐश-आराम में अधिक होता है। एक तो पैसा पाप से ही अजित किया जाता है, दूसरे उसे पाप के ही कार्य में लगाया जाता है । इस प्रकार धन अधिकतया पाप का ही कारण बनता है धन संग्रह करने के पश्चात् उसे और भी बढ़ाते जाना तथा उस धन के द्वारा भौतिक पदार्थों का संचय करते जाना पाप कर्मों के उदय का ही परिणाम है | यदि पुण्य का उदय हो तो धन के द्वारा धर्म, दान, पुण्य करने की बुद्धि प्राप्त होती है। . संसार में भूखे मरने वाले लोग बहुत हैं। माना कि दरिद्री लोग भूखे मर जाते हैं। भूखे मर जाना क्या पाप है ? पाप नहीं मजबरी हो सकती है। परन्तु क्या इस संसार में खा कर मरने वाले लोगों की कमी है ? जितने लोग भूखे मरते हैं, भख से पीड़ित हो कर अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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