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ब्रह्मचर्यं
सैनिक से अपने शीलधर्म की रक्षा के लिए अपनी जिह्वा को बाहर निकाल कर मृत्यु को अंगीकार किया तो चंदना ने सतीत्व के महत्त्व को भली भाँति समझ लिया ।
राजीमती ने भगवान् नेमिनाथ के द्वारा संयम पथ को स्वीकार किए जाने के पश्चात् कहा था कि विवाह के समय विवाह - मंडप में जो हाथ मेरे हाथ पर नहीं रखा गया, वह दीक्षा मंडप में मेरे सिर पर रखा जाएगा। इसी राजीमती ने रथनेमि के भ्रष्ट विचारों से न केवल स्वरक्षा की, अपितु उसे भी संयम पथ पर पुनः आरूढ़ किया ।
द्रौपदी ने पांडवों को ही पति माना (५ पति उसे पूर्वभव के निदान से प्राप्त हुए थे, एक पतिव्रत का यह अपवाद है) उस ने दुर्योधन जैसे दुर्द्धर्ष योद्धा के प्रति कभी भी सन्मान व्यक्त नहीं किया ।
कौशल्या (राम की माता) का ही प्रभाव था कि राम इतने आदर्श बन सके । मृगावती ने संयम को अंगीकार किया तथा चण्ड प्रद्योत के प्रपंचजाल को तोड़ दिया । अन्यथा चण्ड प्रद्योत के द्वारा बिछाई गई लोभ प्रपंच की वागुरा में से निकलना कोई
सरल न था ।
सुलसा तथा चेलना के सतीत्व की प्रशंसा भगवान् महावीर ने धर्म पर्षद में की थी ।
सुभद्रा सती के सतीत्व ने कच्चे धागों के द्वारा कुंए से पानी निकाल कर यह प्रमाणित कर दिया कि सती के सतीत्व को कलंकित नहीं किया सकता ।
शिवा देवी जो कि चण्ड प्रद्योत की पत्नी थो की नज़रों से चन्द्रप्रद्योत सम्राट् भी नज़रें न मिला सका । साम्राज्य के प्रभाव पर यह सतीत्व के प्रभाव की विजय थी ।
कुन्ती एक पतिव्रता थी, तभी तो उसके पुत्र इतने बलशाली तथा न्यायशील बन सके ।
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