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प्रथम प्रकाश १. दुर्वार-रागादि-वैरि-वार-निवारिणे-जो परमात्मा शब्द से अभिहित किया जाता है, वह महान काठिन्य से निवारण योग्य राग द्वेषादि से रहित होना चाहिए । हेमचन्द्राचार्य स्वरचित अभिधान चिंतामणि कोष में तीर्थंकर को १८ अवगुणों से मुक्त अथवा १८ दोषों से रहित सिद्ध करते हैं।
अन्तरायाः दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः । हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं, निद्रा चाविरतिस्तथा।
रागो द्वषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी॥ अर्थात्-१. दानांतराय, २. लाभांतराय, ३. भोगांतराय, ४. उपभोगांतराय, ५. वीर्यान्तराय ६. हास्य ७. रति (प्रसन्नता) ८. अरति (खेद) 8. भय १०. घणा ११. शोक १२. काम १३.मिथ्यात्व १४. अज्ञान १५, निद्रा १६. अविरति १७. राग १८. द्वेष-ये दोष अरिहंत-तीर्थंकर-अर्हन में नहीं होते। इन दोषों को चार घाती कर्मों में निम्न रूप से विभाजित किया जा सकता है।
दोष
१. ज्ञानावरणीय अज्ञान २. दर्शनावरणीय निद्रा ३. मोहनीय हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा,
शोक, काम, मिथ्यात्व, अविरति
राग, द्वेष । ४. अन्तराय दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय,
उपभोगांतराय, वीर्यांतराय। ग्रन्थकार उपर्युक्त विशेषण के द्वारा प्रभु में तीन विशेषणों को समाहित करना चाहते हैं। १. अनंत-विज्ञान २. अतीत दोष तथा ३. अबाध्य सिद्धांत । ग्रन्थकार के 'अन्ययोग
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