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योग शास्त्र व्यवच्छेदिका' ग्रन्थ के अनुसार ये तीनों विशेषण मिथोग्राही हैं । जो अनन्तविज्ञानी होता है, वह दोष रहित होता ही है तथा जो दोष रहित होता है, वह अबाध्य- (अकाट्य तर्कों वाले) सिद्धांत का प्रणेता होता है । जिस में ये तीन विशेषण होते हैं, उस में 'देव पूज्यता' भी समाहित हो जाती है । (जिसका विवेचन द्वितीय विशेषण 'अर्हत्' के प्रकरण में किया जाएगा।) ___"दुर रागादि..... " वस्तुत: मानव के बाह्य शत्रु, मानव के लिए उतने अनर्थकारी प्रमाणित नहीं होते, जितने कि आभ्यंतर शत्रु । बाह्य शत्रुओं के विनाशार्थ बाह्य उपकरणों का आविष्कार आवश्यक है. जब कि आंतरिक शत्रओं के विनाशार्थ आन्तरिक साधनों का आविर्भाव ही अपेक्ष्य है।
रागद्वेषादि जितनी आत्मा की हानि करते हैं, भौतिक साधन या अन्य कोई भाव उतनी हानि नहीं करते । भौतिक साधन भी हानि उसी अवस्था (Condition) में करते हैं, जिस अवस्था में राग द्वेष का बंध हो । राग द्वेष के द्वारा कर्मों का तीव्र बंध होने से ही आत्मा का दुर्गति आदि में पतन होता
' यदि द्वेष अनुचित है तो राग उस से भी अधिक भयंकर है। राग वैयक्तिक हो या पारिस्थितिक-वह राग ही कहा जाएगा। राग का परिणाम दूर द्रष्टा ही जानते हैं । 'आपात्' रम्या भोगाः'-भोग तो प्रारम्भ में रमणीय प्रतीत होते हैं, तत्पश्चात् वे ही निम्बफलवत् कट प्रतिभासित होते हैं । जिस का फल कटु हो, उस का मूल अकटु या मधुर कैसे हो सकता है ?
रागद्वेष में से राग मल है तथा द्वेष उस का फल । बिना राग के द्वेष कदापि नहीं होता। द्वेष के अस्तित्व में राग अवश्यम्भावी है। मानव की साधकावस्था का मूल मंत्र 'राग राहित्य' है । समता का सम्बन्ध यद्यपि द्वेष तथा क्रोध की समाप्ति के साथ है तथापि राग रहित हो जाने पर द्वेष या समता की कल्पना ही व्यर्थ है, क्यों
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