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योग शास्त्र
२४३ २. साधु गृहपति से मात्रादि के लिए या परठने के लिए भी भूमि की बारंबार याचना करे । ऐसा करने से, गृहपति ने जिस प्रमोदभाव-अहोभाव से वसति दी, उस की वह भावना अभी तक है या नहीं, इस का पता लग सकेगा। इस के अतिरिक्त उस के दर्भावादि को देख कर साधु वहां ले अन्यत्र जाने का कार्यक्रम भी बना सकता है। साधु गृहपति को अल्पांश में भी उद्विग्नखिन्न देख कर तुरन्त वहां से विहार करे । वहां एक भी दिन का अधिक वास न करे। यदि साधु इस उचित व्यवहार का का प्रदर्शन न करेगा तो अन्य साधुओं को वसति मिलना दुर्लभ हो जाएगा। गौचरी के विषय में भी यही बात बौद्धव्य है ।
३. साधु आवश्यक स्थान की याचना करके उतने ही स्थान में संकुचित हो कर रहे । उसी स्थान में गौचरी, स्वाध्याय, ध्यान, काउसग्ग आदि क्रियाएं करे, जिस से गृहस्थ को वह अप्रिय न हो।
४. वसति में पूर्व ही याचना-पूर्वक स्थित साधु के पास जाकर उस स्थान पर रहने की आज्ञा मांग कर ही रहना चाहिए।
५. गुरु की आज्ञा से ही भोजन, आहार, उपकरण आदि का उपयोग करना चाहिए। इस से गुरु का न केवल सन्मान होता है अपितु अनेक दोषों का भी निराकरण होता है।
गरु सदोष-निर्दोष वस्तु, लाभ-हानि आदि का ज्ञाता होता है। अतः वह शिष्य की उपकरणादि सामग्री को उचित अनुचित आदि समझ कर स्वीकार करने की आज्ञा दे सकता है।
इस के अतिरिक्त साधु को राजनिषिद्ध (शासन के द्वारा वजित) स्थान पर भी नहीं जाना चाहिए । वहाँ जाने से वह साधु जासूस आदि समझ कर पकड़ा जाए तो उसे ग्लानि तथा दैन्य का सामना करना पड़ता है। वहां वह शत्रुओं के षड़यंत्र का शिकार भी बन सकता है ?
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