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________________ २२८ ] अचौर्य कई चोर आत्म-वंचक भी होते हैं । वे लाखों की संख्या की चोरी करके कुछ दान कर देते हैं या दीन-दुखियों को वितरित कर देते हैं । उन्हें यह आत्म सन्तोष होता है कि वे इस से धर्म ही कर रहे हैं । जब कि अनर्थकारी धन से किया गया धर्म भी अनर्थकारी ही होता है । प्रक्षालनाद्धि पंकस्य द्वरादस्पर्शनं वरं । पहले चोरी का पाप करके फिर थोड़ा सा दान दे देना कीचड़ में पैर डाल कर प्रक्षालित करने के समान है । यह कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं है । वे समझते हैं कि धनवानों के धन की चोरी करके गरीबों का दुःख दूर करना उचित ही है । परन्तु चोरी से दुःखी उस धनवान् का दुःख दूर कौन करेगा ? 1 देश के बड़े-बड़े स्मगलर भी आत्म- प्रवंचना के शिकार हैं । मलिंग से करोड़ों रुपये अर्जित करके लाखों रुपये धर्म के कार्यों पर लगा देते । जिससे देश में समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी करके वे देशद्रोह के भागीदार बनते है । साधु का अचौर्य सम्पूर्ण है । सूक्ष्म है परन्तु गृहस्थ को भी अर्य के सम्बन्ध में कुछ नियम बना ही लेने चाहिएं। मान लीजिये आपके पास किसी ने अपनी अमानत रखी। आप उसमें ख्यानत कर जाते हैं । बह जब आपके पास मांगने आए तब आप उसे कह देते हैं कि, " तूने मेरे पास वह वस्तु कब रखी थी ? अथवा चोर ले गया है ।' यदि आप के साथ ऐसा व्यवहार हो तो ! नियत ही बिगड़ जाए तो आँखों की लज्जा कहां रह सकती है ? आज मानव सरकार, परिवार तथा धर्म के साथ ठगी करके Black money बढ़ाता जा रहा है । वह समस्त धन भी चोरी काही धन है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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