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योग शास्त्र
[१७६ पाप का बंध अल्प नहीं होता। कलुषित विचारों का हिंसा से बहत सम्बन्ध है । वर्तमान में लोग धर्म ध्यान बहत करते हैं, लेकिन उन में विवेक का अभाव है।
यदि आप भगवान की पूजा करते हैं, पूजा करने के लिये पुष्पों तथा जल का उपयोग करते हैं । जल का उपयोग करते हुए यदि आप के मन में अविवेक तथा प्रमाद है तो हिंसा का दोष लगता है । क्योंकि फल तथा जल सचित्त हैं और फल चढ़ाते समय भी विवेक नहीं है, प्रमाद है तो हमें हिंसा का दोष लगता
है।
__ पुष्पों में तथा जल में त्रस प्राणी होते हैं। यदि वे हाथ लगने से मर जाते हैं, क चले जाते हैं तो हिंसा का दोष लगता है। आप को सचित्त वस्तु को हाथ लगाने से भी दोष नहीं लगता, क्योंकि आप के भन में विवेक है अप्रमत्त दशा हैं। अविवेक और प्रमाद नहीं है । अतः मन के साथ हिंसा और अहिंसा का गहन सम्बन्ध है।
शास्त्रकार यहां पर अहिसा की पांच भावनाओं का निरूपण करते हैं :- १. 'मनोगुप्तिः ' मनोगप्ति का अर्थ है-मन को गुप्त कर लेना । मन के विचारों को मुक्त करना-दूर करना। यदि आप के मन में अशुभ संकल्प और विकल्प आदि रहे हैं तो आप को हिंसा का दोष लगता जा रहा है, पाप का बंधन होता जा रहा है । अतः मनोगुप्ति अहिंसा के सम्बन्ध में प्रथम लक्षण है, प्रथम भावना है। शेष चार भावनाएं काया की प्रवृत्ति से सम्बन्धित है। २. ईर्या समिति ३. एषणा समिति ४. आदान भंडमत निक्खेवणा समिति ५. आहार ग्रहण इन चार भावनाओं द्वारा भी अहिंसा का पालन हो सकता है। तात्पर्य है कि आप चलो तो विवेक पूर्वक चलो। यदि आप का शरीर किसी प्राणी का वध करता हैं, मारता है, तो आप को हिंसा का दोष लगता
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