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अहिंसा कीड़ी कुचलो जा रही है । उस समय जो प्रमाद है उस से विशेष पाप का बंध होता है। ___ आप मन से किसी को दुःख दें तो वहां भी हिंसा है। आप वचन के द्वारा किसी को भला बुराकह देते हैं और उसे दुःख होता है तो एतद् द्वारा भी हिंसा होती है । आप काया के द्वारा किसी को मारते हैं या हानि पहुंचाते हैं तो वह समस्त क्रिया हिंसा ही है।
यहां एक ही बात सोचने तथा समझने योग्य है कि प्रमाद, अविवेक अथवा अजागृति का हो दूसरा नाम है।
अविवेक :-मान लो ! आप चले जा रहे हैं । आप के मन में विवेक है । आप के मन में किसी कीड़ी या, प्राणी को मारने की भावना नहीं हैं। मन में जागति है। सद्भावना है। जीव रक्षा की भावना है । तथापि अनायास आप के पैर के नीचे कीड़ी आती है और न जानते हुए मर जाती है । यहां जो पाप का बंधन होता है वह अल्प होता है । मात्र ‘इरियावहियं' आदि करने से वह पाप समाप्त हो सकता है। क्योंकि कीड़ी तो वहां मर जाती है, परन्तु उसे मारने की भावना नहीं है। उसे समाप्त करने का विचार नहीं है, प्रमाद नहीं हैं, अत: मात्र अनुताप के विचार से पाप समाप्त हो जाता है । वहां जीव को बचाने की भावना हैं, मन में जागति है, विवेक है, अतः कीड़ी के मरने से पाप का अल्प बंध होता है । प्रमाद हिंसा की जड़ है और विवेक अहिंसा का मूल है।
मान लो ! आप चले जा रहे हैं। आप के मन के भाव अच्छे नहीं है और आप किसी व्यक्ति को मारते हैं तथा उस व्यक्ति को दुःख होता है तो मन के विचार अच्छे न होने से तथा उसे जानबूझ कर मारने से अधिक पाप बंध होता है। __यदि आप विवेक पूर्वक देख कर चल रहे हैं। तथापि कीड़ी मर जाए तो जानबूझ कर मारने से होने वाले पाप से यह पाप अल्प होता है । मन के कलुषित विचारों से जो पाप होता है इस
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