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योग शास्त्र
]१७१ रहती है जब कि क्रिया से निष्कपटता तथा आडम्बर से रहित होने की आवश्यकता होती है।
अभिमान तथा वादविवाद ज्ञान का अजीर्ण है तथा निंदा, कपट, मान, आडबर क्रिया का अजीर्ण है। साधक को इन दोनों से स्वयं को सुरक्षित करना है। यदि आंतरिक द्वष वृत्ति तथा बाह्य निंदा (क्रिया करने वालों की) नहीं छूटती है तो क्रिया कर्मनिर्जरा का कारण नहीं बन सकती। यदि उन की अभिमान तथा यशः प्रतिष्ठा की भावना न छटी तो ज्ञान भी फलदायी नहीं हो सकता।
ज्ञान बिना भाग्य के प्राप्त नहीं होता। ज्ञान बच्चों की तरह सीखना चाहिए तथा क्रिया बुजुर्गों की तरह करनी चाहिए। ___कथनी तथा करनी भी समान होनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि कथनी (ज्ञान) बहुत उच्च हो परन्तु करनी (कर्म) बहुत निम्न हो तथा करनी बहुत उच्च हो परन्तु कथनी (उपदेश ज्ञान) बहुत निम्न हो।
परन्तु ज्ञान तथा क्रिया दोनों का रहस्य स्वाध्याय में छिपा है। स्वाध्याय दोनों की चाबी है । स्वाध्याय एक ऐसा कीमिया है जिस से व्यक्ति प्रत्येक वस्तु को प्राप्त कर सकता है ।
सामायिक आदि में मालाएं गिनने वाले यदि स्वाध्याय की ओर भी कुछ लक्ष्य रखें तो माला में भी अधिक एकाग्रता तथा स्थिरता आ सकती है। ____ यहां अन्त में यह कह देना आवश्यक हैं कि यदि क्रिया के साथ ज्ञान न होगा तो क्रिया में मन न लगने से क्रिया करते हुए भी मन में अनेक विचार आते रहेंगे। .. तथा यदि ज्ञान के साथ क्रिया का पूर्ण पालन न होगा तो . पाप क्रियाएं जीवन में स्थान जमा लेंगी। ज्ञानी निर्जरा भी अधिक करता है तथा पाप करते हुए पाप भी अधिक बांधता है।
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