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________________ १७२] ज्ञान तथा चारित्र तब यह समस्या उग्ररूप धारण कर लेती है, जब वह तथाकथित ज्ञानी पाप को पाप ही नहीं समझता । मूर्खः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यः विशेषज्ञः । ज्ञानलव दुविदग्धं, ब्रह्मापि शक्तः न बोधयितुं ॥ ऐसे ज्ञानी यदि धर्म क्रिया से विमुख रहेगा तो पाप क्रिया अवश्यमेव करेगा । वह उस ज्ञान का प्रयोग पाप की वृद्धि के लिए करेगा । वह सम्यक् क्रियाओं ( रात्रि भोजन त्याग, व्रत, नियम आदि) के बिनासुखशील बन जाएगा । यह सुखशीलता क्रिया की प्रथम शत्रु है । अतः एव शास्त्रकारों की साधु के लिए कठोर आज्ञा है । आयावयाहि चय सोगमल्ल, कामे कमाही कमियं खु दुक्ख । ( दशवै ० ) हे श्रमण ! तू सुखशील मत बन । श्रम करके अपना श्रमण नाम सार्थक कर ! ग्रीष्म ऋतु में कड़कती धूप में आतापनाले । सुकुमारता को छोड़ दे क्योंकि कामों को कामित करने से ही दुःख उपलब्ध होते हैं । श्री कृष्ण भी गीता में ज्ञान दर्शन चारित्र योग को क्रमशः ज्ञान भक्ति तथा कर्म कह कर पुकराते हैं । I योग शास्त्र में ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के भेदों का वर्णन करने के पश्चात् अब चारित्र के भेदों के रूप में अहिंसा आदि का वर्णन किया जाएगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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