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________________ योग शास्त्र [१६५ १८ पुराणों में व्यास के दो ही वचनों का विस्तार है । परोपकार से पुण्य होता है तथा दूसरों को पीड़ा होने से पाप । तर्क - 'दया' धर्म का मूल है" जिस क्रिया में दया का पालन है | अहिंसा है वह धर्म क्यों न होगी ? परन्तु दया करने से पहले ज्ञान भी तो अनिवार्य है । जीवादि का ज्ञान न होगा तो मानव दया किस की करेगा ? उपकार किस का करेगा ? 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना ज्ञान के अभाव में कैसे उत्पन्न होगी ? ११. 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' । हे प्रभो ! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलें । तर्क - प्रभु तो मार्ग दर्शन ही दे सकते हैं, पथ पर चलना तो साधक को स्वयं पड़ेगा । प्रभु से सद्बुद्धि की याचना करनी चाहिए कि जिस से मानव पापों की ओर कदम न रख कर पुण्य की ओर कदम बढ़ाता चले । १२. भव्व निव्वेओ मग्गानुसारिआ । ( जयवीयराय सूत्र ) इस सूत्र में प्रभु से आचरण ( निर्वेद मार्ग का अनुकरण लोकविरुद्ध वस्तु का त्याग, गुरुजन पूजा, परार्थकरण, सुगुरुयोग तद्वचन सेवा) की याचना की गई है तथा अन्त में 'बोधि लाभो अ' बोधि लाभ की भी याचना की गई है । प्रभु के मार्ग का अनुरसण तो वही कर सकता है, जो उस का ज्ञान भी रखता है । अन्नाणी किं काही, किंवा नाहीइ छेअपावगं । अर्थात् अज्ञानी क्या करेगा तथा पाप पुण्य, कर्त्तव्य अकर्त्तव्य को क्या जाने गा ?. १३. Character is a locking glass, broken once is gone alas. चारित्र काँच का एक दर्पण है जो कि एक बार टूटने के बाद समाप्त हो जाता है । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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