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________________ योग शास्त्र [१६३ ___ कर्म शत्रुओं के नाशक तीर्थंकर को नमस्कार हो। __तर्क-यहां भी क्रियावाद ही मुखर हो रहा है। कर्मध्वंस की प्रक्रिया क्रिया ही तो है, परन्तु कर्मों का नाश भी सम्यक ज्ञान के बिना असम्भव है, फिर भले वह ज्ञान एक शब्द 'आत्मा' तक ही सीमित हो। अतः क्रियावादी इस वाक्य से ज्ञान के प्रतिउपेक्षा करे तो समुचित न होगा। ६. शैलेशी करण क्रिया के बाद ही मोक्ष होता है। तर्क -निर्वाण का 'करण' (अविमयात्मकं असाधारणं कारणं करणम्) क्या है ? शैलेशी करण की क्रिया 'करण' नहीं हो सकती क्योंकि वह क्रिया है। भले ही वह ‘परम स्थिरता' है तथापि प्रयत्न पूर्वक किए जाने के कारण उसे क्रिया ही कहना चाहिए। तो करण कौन होगा ? करण होगा 'केवल ज्ञान' कुछ अंतकृत् केवलियों को अपवाद में सम्मिलत करें तो कहना ही होगा कि पहले घातीकर्मों के क्षय से 'ज्ञानावरणीयादि' कर्मों का क्षय होता है । फलतः तुरन्त केवल ज्ञान हो जाता है । केवल ज्ञान निर्वाण के प्रति असाधारण कारण है । अन्तिम समय में की गई योग निरोध की क्रिया से यहां ज्ञान की महत्ता का कम मूल्यांकन करना, समीचीन न होगा। ७. कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव । ___ कषायों से मुक्त होना ही मुक्ति है। तर्क-क्रोधादि को क्षमा से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से, लोभ को संतोष से समाप्त किया जा सकता है। परन्तु क्षमा, नम्रता, सरलता तथा सन्तोष को प्राप्त करने में मुख्य कारण ज्ञान है । ज्ञानी ही तो क्षमावान् नम्र, सरल तथा • सन्तोषी होता है । अज्ञानी क्षमाशील न बन कर प्रतिशोध में विश्वास रखता है। विनयी बन कर अहंकारी बन कर मद्यप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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