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________________ १६२] ज्ञान तथा क्रिया सुलभं वागनुच्चारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुगलेष्वप्रवृत्तिस्तु योगानां मौनमुत्तमं ॥ अर्थात्- 'वाचा का उच्चारण करना' रूप मौन तो एकेंद्रियादि के लिए भी सुलभ है। पुद्गलों में (विषयों में) प्रवृत्ति न करना यह उत्तम मौन है। कहिए ! साधु के मौन का क्या अर्थ हुआ ? वाचा का (अथवा मन तथा शरीर का) मौन साध को ज्ञान योग से ही प्राप्त हो सकता है। वह ज्ञान से दुर्वचन, दुष्प्रवृत्ति, दुश्चिंतन का फल जानता है, मन, वचन एवं काया का मौन करता है। अतः 'मौन क्रिया' का कारण भी ज्ञान है . ३. श्रावक शब्द में ३ शब्द है-श्रा+व+क। श्र-अर्थात् श्रद्धा या श्रवण (जिस से ज्ञान प्राप्त होता हैं ।) व-अर्थात् विवेक, क-अर्थात क्रिया । अर्थात् श्रावक के लिए तीनों आवश्यक हैं। ४. साध्नोति स्वपर हित कार्याणीति साधुः ।" . जो स्व तथा पर का हित साधन करता है, वह साधु होता तर्क-स्वपर हित साधन में उपदेश, सेवा, तप अहिंसा आदि समस्त धर्म क्रियाओं का समावेश हो जाता है । परन्तु साधु के पहले 'स्वहित होता है, बाद में परहित । जो स्वहित नहीं कर सकता, वह परहित क्या करेगा? - स्वहित में ज्ञान प्राप्ति प्रमुख शर्त है । जब साधु सारा दिन स्वाध्यायादि के द्वारा ज्ञानार्जन करेगा, तभी वह स्वहित कर सकेगा अन्यथा ज्ञान रहित शुष्क क्रियाएं वह सारा दिन रुचिपूर्वक नहीं कर सकता। ज्ञान के बिना शुष्क क्रियाएं उस का कितना 'स्वहित' कर सकती हैं ? ५. 'नमो अरिहंताणं'। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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