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ज्ञान तथा क्रिया विश्व में ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं है । हे अर्जुन ! ज्ञान (केवल ज्ञान) के प्राप्त हो जाने के पश्चात समस्त कर्म समाप्त हो जाते हैं।
तर्क-ज्ञान सर्वाधिक पवित्र है, निर्दोष है, यह सत्य है । केवल ज्ञान के पश्चात् साधना समाप्त हो जाती है, परन्तु तीर्थंकर के कई कर्म । (पुरुषार्थ-दायित्व) शेष रहते हैं। यथा उपदेश देना, भव्य जीवों को प्रतिबोध देना तथा अन्त में मोक्ष प्राप्ति के समय पांच हनस्वाक्षर के समय में सम्पन्न होने वाली शैलेशीकरण की क्रिया । यह शैलेशीकरण की क्रिया न होगी तो क्या केवल ज्ञान भी मोक्ष प्रदान कर सकेगा? ३३. गुशब्दस्त्वंधकारः स्याद्, रूशब्दः प्रतिरोधकः ।
अन्धकार निरोधित्वाद् गुरुस्त्यिभिधीयते ॥ जो अज्ञान अन्धकार को दूर करे, वह गुरु होता है ।
तर्क-यदि कोई गरु दीपक के समान दूसरों की आत्मा के अन्धकार को दूर करता रहे तथा स्वयं अभव्य प्राणी की तरह अन्धकार में भटकता रहे तो भी वह गुरु कहलाने का अधिकारी होगा ? "नहीं।" तो गुरुता की परिभाषा ज्ञान संहितता ही क्यों ? चारित्र संहितता क्यों नहीं हो सकती । चारित्रवान् (क्रियावान) गुरु दूसरों को भले ही न तार सके, स्वयं का कल्याण तो कर ही सकता है।
वस्तुतः लक्षण अव्याप्ति अति व्याप्ति तथा असंभव तीन दोषों से रहित होता है।
उपर्युक्त लक्षण को हम 'दूषित' नहीं कह सकते, क्योंकि वह मात्र विधि वाक्य है। उस से किसी अन्य बात का निषेध नहीं होता। ३४. सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि,
संसार माया परिवजितोऽसि ।
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