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________________ योग शास्त्र [१५५ क्षय ज्ञानवान् त्यागी करता है। २६. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते। विद्वान् व्यक्ति सर्वत्र पूजित होता है। तर्क-यदि विद्यावान् आचरणहीन हो तो क्या वह पूजित हो सकता है ? ३०. दंसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभटुस्स नत्थि निव्वाणं। सिझंति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिझंति ॥ सम्यक् दर्शन से भ्रष्ट (तथा किसी कारण से सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट) प्राणी का निर्वाण नहीं होता। चारित्र हीन की मुक्ति हो सकती है, दर्शनरहित की नहीं। तर्क-यह वाक्य तो मात्र सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करता है। क्रिया चारित्र का निषेध बिल्कुल भी नहीं करता । प्रारम्भिक अवस्था में सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान (चतर्थ गुण स्थान) नहीं होगा तो सम्यक्चारित्र (पंचम गुण स्थान आदि) भी कैसे हो सकता है ? यह विधि वाक्य है ? जो कि कहता है कि सम्यग्दर्शन अनिवार्य है। यदि यह वाक्य निषेध वाक्य हो तो चारित्र (१४वें गुणस्थान तक) के अभाव में निर्वाण न हो सकेगा, अतः चारित्र भी अनिवार्य है। ३१. समाहिमरणं च बोहिलाभो अ, संपज्जउ –जयवीयराय सूत्र प्रभु को प्रणाम करने से मुझे बोधि तथा ज्ञान एवं सद्बुद्धि का लाभ हो। तर्क-इस से यह स्पष्ट होता है कि प्रभु-नमन रूप क्रिया से बोधि (सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान) प्राप्त हो सकता है । बताइए ! ज्ञान पहले स्वीकार किया गया या क्रिया ? "क्रिया" । ३२. नहि ज्ञानेन सदृशं, पवित्रमिह विद्यते। सर्वकर्माखिलं पार्थ ! ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ -गीता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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