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अतीत वर्ष में जब मेरा चातुर्मास परमश्रद्धेय युवा प्रतिबोधक आचार्यदेव श्रीमद् विजय जनक चन्द्र सूरीश्वर जी के साथ श्री गोडी जी जैन उपाश्रय पायधुनी बम्बई में था । उस समय कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रणीत योगशास्त्र को व्याख्यान में प्रारम्भ किया गया था ।
चातुर्मास में योग शास्त्र के प्रथम प्रकाश का प्रारम्भिक भाग मेरा प्रवचन का विषय रहा । श्रुतरसिक जनता ने आग्रह किया कि इन प्रवचनों के प्रकाशन की व्यवस्था हो सके तो बहुत अच्छा हो ।
फलतः इस ग्रन्थ का प्रकाशन कार्य श्री विजय वल्लभ मिशन को सौंपा गया ।
मैंने इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाश के ३३ श्लोकों पर विस्तृत विवेचन लिखना प्रारम्भ किया । मेरा विचार था कि इस ग्रंथ के द्वारा पाठकों को कतिपय विषयों पर व्यवहार - निश्चय का ज्ञान अल्पांश में भी हो जाना चाहिए । इस के अतिरिक्त पाठक जिस विषय का अध्ययन करें, उन्हें उस विषय का अनिवार्य ज्ञान हो सके, एतदर्थ इस ग्रंथ को इसी रूप में लिखा गया है । पाठक इस विषय निरूपण को व्यवहार तथा निश्चय की युति के रूप में समझें, अन्यथा शंकाएं उत्पन्न हो सकती हैं । इस ग्रंथ में ज्ञान तथा क्रिया प्रकरण भी ज्ञान तथा क्रिया की युगपद विधायकता (Positive View) के लिए लिखा गया है । पाठक उसे भी अन्यथा रूप से न लें
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इस ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना का निर्माण हो जाने के पश्चात् अनेक बाधाएं उपस्थित हुईं। यह ग्रन्थ लुधियाना (पंजाब) में मुद्रणार्थ प्रेषित किया गया । अन्य ग्रन्थों की रचना में व्यस्त होने के कारण प्रतिलिपि तैयार करने में विलंब हुआ । पंजाब की स्थितियां देश व्यापी चिंता का विषय बनी हुई थीं । अतः वहां
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