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________________ आचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी के वाद-विवाद, खंडन-मंडन के ग्रंथ युग की आवश्यकता के अनुसार लिखे गए, परन्तु आज जब कि समन्वय के नाम पर समस्त धर्म तथा धर्माचार्य एक मंच पर बैठना रुचिसंगत मानते हैं। विश्व में ऐक्य की बातें ज़ोर पकड़ रही हैं। विश्व में एक सरकार की बात भले ही हास्यास्पद लगे परन्तु देश-देश के मतभेदों को सुलझाने का कार्य त्वरित गत्या हो रहा है अतः समन्वयवादी सत् साहित्य की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ जाती है। प्रत्येक मानव या धर्म को अंततः समन्वय के मार्ग पर ही आना होगा, इसका अन्य कोई भी विकल्प नहीं है क्योंकि समन्वय में ही अनेकांतवाद का मल तिरोहित है। श्रमण वर्ग की भी अपनी-अपनी साधना है, अपना-अपना चिंतन है, अपना-अपना कार्य क्षेत्र है। श्रमणों का लेखन क्षेत्र भी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न है। मेरे मन में भी लेखन के क्षेत्र में चिंतन-अनुभव के आदानप्रदान की भावना जागृत हुई । लेखक जनता को कुछ सिखाता ही नहीं है, उसे जनता से, पाठकों से, बहुत कुछ सीखने-समझने का भी अवसर प्राप्त होता है। लेखक का चिंतन उस के लेखक में झलकता है । लेखक की बात से सहमत होना, न होना तो अपनी इच्छा की बात है परन्तु उस के शास्त्र-प्रमाण या तर्क को समझने का प्रयत्न करना, प्रत्येक पाठक का कर्तव्य बन जाता है। प्रवचन की 'वाह-वाह' तथा 'हवा-हवा' के आडम्बर में जनता को सीमित लाभ होता है । परन्तु यदि प्रवचनों को प्रकाशित कर दिया जाए तो अधिक लाभ हो सकता है अतएव ग्रंथ लेखन की मेरी योजना जो कि २-३ वर्ष पूर्व निर्मित हुई थी अब प्रारम्भ हुई है। (१३) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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