________________
१५२
२२. ज्ञाता द्रष्टा कर्मसु न लिप्यते ।
वचन
मात्र ज्ञाता द्रष्टा योगी कर्मों में लिप्त नहीं होता । तर्क - परन्तु वह योगी ज्ञाता द्रष्टा ही नहीं होता, मन काया के योगों का त्यागी भी होता है । अतएव कर्मों में लिप्त नहीं होता ।
२३. समरो मंत्र भलो नवकार ।
यह है चौदह पूर्व का सार ।
तर्क - नमस्कार महामन्त्र १४ पूर्वों का सार तो है परन्तु १४ पूर्वधारी भी अन्त समय में समस्त ज्ञान को छोड़ कर नवकार मंत्र का ही ध्यान करते हैं, अतः यह वचन कहा गया है | नवकार महामन्त्र में अरिहंत आदि का ध्यान करते समय साधु अप्रमत्त हो जाता है । अतः नमस्कार मन्त्र का जाप भी अप्रमत्त दशा ( सप्तम गुण स्थान - चारित्र) के लिए ही है ।
ज्ञान तथा क्रिया
२४. ज्ञानी से ज्ञानी मिले, करे ज्ञान की बात ।
मूर्ख से मूर्ख मिले, करे लात से बात ॥
तर्क - ज्ञानी लोग ज्ञान की बात करते हैं, सभ्यता से बात करते है जब कि अज्ञानी में न सभ्यता होती है न ज्ञान बल । परन्तु ज्ञानी का ज्ञान यदि बातों तक ही सीमित रह जाए तो क्या उद्धार हो सकेगा ?
२५. एक शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुप्रयुक्तः । स्वर्गे लोके च कामधुक् भवति ॥
अच्छी तरह से ज्ञात किया हुआ एक भी शब्द इस लोक में तथा स्वर्ग में भी कामधेनु के समान इच्छित की पूर्ति करता है । तर्क - परन्तु क्या आप जानते हैं कि एक भी शब्द को सम्यक् ज्ञात करने के लिए कितने ग्रन्थ पढ़ने पढ़ते हैं ? क्या ज्ञान प्राप्त करना सरल है ? ज्ञान प्राप्त करने वाला हजारों में एक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org