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ज्ञान तथा क्रिया
तत्वज्ञान की कितनी मात्रा - इयत्ता (quantity) होने के पश्चात् मुक्ति होती है । क्या इस का कोई माप दण्ड शास्त्रों में मिलता है ?
१५. अहो कष्टं ! अहो कष्टं ! तत्त्वं न ज्ञायते परम् ।
अरे शय्यंभव ! अरे विप्र ! तू यज्ञादि करके निरर्थक कष्ट क्रियाएं कर रहा है । तुझे अभी तक तत्व का ज्ञान नहीं है ।
तर्क - ' किं तत्व' पूछे जाने पर जैन साधु ने उस यज्ञ भूमि के नीचे दबी हुई "शाँति नाथ" प्रभु की प्रतिमा को तत्व के रूप में प्रतिपादित किया । आचार्य प्रभव स्वामी का अपने शिष्य को शय्यंभव के पास भेजने का प्रयास शय्यंभव को मात्र तत्व ज्ञान ही सिखाना था या चरित्र की ओर उन्मुख कराना था ? उस साधु को शय्यंभव को दीक्षा के लिए प्रतिबोधित करने के लिए ही वहां भेजा गया था ।
१६. तत्त्वमसि -
वह परमात्मा तू ही है ।
तर्क - ' तावमसि' वेदाँत का ज्ञान ब्रह्म ज्ञान कहलाता है अथवा 'सोऽहं' यह ज्ञान भी ब्रह्म की पहचान के लिए है । परन्तु वेदान्त में 'तत्वमसि' के ज्ञान के बाद “ अभ्यासेन तु कौंतेय ! वैराग्येन च गृहते” गीत के ये शब्द क्या अभ्यास तथा वैराग्य की प्राप्ति का सन्देश नहीं देते ? वेदान्त धर्म के प्रवर्त्तक मात्र 'तत्वमसि' के ज्ञाता ही न अपितु अपनी मान्यता के अनुसार सन्यास (चरित्र) को भी धारण करने वाले थे ।
१७. विद्ययाऽमृतमश्नुते ।
विद्या (ज्ञान) से अमरत्व की प्राप्ति होती है ।
तर्क - विद्या के द्वारा मानव अमर होता है, क्योंकि वह ज्ञान बल से अमर होने की विधि को जान लेता है । परन्तु फिर उस
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