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________________ योग शास्त्र ११. ज्ञानस्य परा संवित्तिः चारित्रम् । ज्ञान का परम संवेदन ही चारित्र है । [१४ε तर्क- इस परम संवेदन में क्या चारित्र का समावेश नहीं होता ? अवश्य होता है । यह वचन उस ज्ञानी के लिए है जो निष्पाप जीवनयापन करता है । १२. तब लग कष्ट क्रिया सब निष्फल, ज्यों गगने चित्त राम, जब लग आवे नहीं मन ठाम । ज्ञान के अंकुश से मन रूपी हस्ती को वश में किए बिना, समस्त कष्ट क्रियाएं निष्फल हैं । तर्क - बात तो यह ठीक है, परन्तु ज्ञानांकुश के द्वारा मन के वश में हो जाने के पश्चात् क्या क्रियाएं हेय हो जाती हैं ? क्या क्रियाओं (निष्पाप क्रियाओं) के अभाव में मन पुनः विषयों की ओर न भागेगा ? १३. पंचविशति तत्त्वज्ञः, यत्र तत्राश्रमे स्थितः दण्डी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ॥ सांख्यदर्शन पुरुष ( आत्मा ) तथा प्रकृति ( माया - कर्म) आदि २५ तत्वों के ज्ञान से मानव की मुक्ति हो जाती है । २५ तत्वों के ज्ञाता का वेष या क्रिया कलाप कैसा भी हो, इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता । तर्क - तत्त्वज्ञान से मुक्ति होती है, परन्तु मोक्ष मार्ग का मात्र ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उस सम्यक् मार्ग पर चले बिना क्या मुक्ति की प्राप्ति सम्भव है ? १४. षोडश-पदार्थानां तत्त्वज्ञानात् निःश्रेय सोऽधिगमः । १६ पदार्थों के ज्ञान से परम कल्याण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है । .. तर्क - इन १६ पदार्थों में वितण्डा ( विवाद ) आदि का भी समावेश किया जाता है । विवाद आदि से मुक्ति कैसे सम्भव है ? For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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