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सम्यक् चारित्र गुरु के प्रति यह पूज्य बुद्धि । ऐसी पत्नी तो सचमुच पुण्योदय से ही मिला करती है, कि जो किसी बहाने पति को संसार से छूटने के लिए कोई इंगित कर जाती है । धन्य है वह परन्तु मेरा जीवन ? जब वह स्त्री हो कर त्याग कर सकती है, तो मैं क्या पुरुष हो कर इतना पौरुषहीन निकलूंगा कि त्याग न कर सकूँ ? नहीं ! नहीं ! नेमि कुमार भी राजीमती की पूर्व प्रीति से ही मोक्ष में साथ ले जाने के लिए समझाने आए थे। बारात तक का आडंबर मात्र संयोग था और युवक ने अन्तिम निर्णय कर लिया।
विवाह के उसी शुभ मुहूर्त में उन दोनों ने दीक्षा ग्रहण की । क्या ऐसे संस्कार आज किसी परिवार में दृष्टिगोचरित होते हैं ? बालकों में ऐसे संस्कार ही नहीं हैं । यदि कोई बालक दीक्षा की बात भी करता है, तो मना करने वाले कितने होते हैं ? स्वयं तो इतना पुरुषार्थ कर नहीं सकते। संयम मार्ग स्वीकार करने वाले को मना क्यों करते हैं ? क्या वे ऐसा करके वीर्यांतराय कर्म का बंध नहीं करते ?'
वर्तमान में युवकों में अच्छे संस्कार माता पिता को ही भरने होंगे। बालक के प्रथम गुरु माता-पिता हैं । साधु तो बाद में गुरु हैं । माता का वात्सल्य और पिता की कर्तव्य-शीलता बच्चे का प्रथम शिक्षण है । इस शिक्षण को अर्जित करने वाला क्या युवावस्था में असद् आचार वाला होगा? प्रत्येक जैन श्रावक में चारित्र की भावना कूट-कूट कर भरी होनी चाहिए।
यह निश्चित है, कि चारित्र से ही मुक्ति होती है । इस जन्म में चारित्र के लिए पुरुषार्थ न किया जाएगा, तो अगले जन्म में करना पड़ेगा । सर्वविरति चारित्र का पालन दुष्कर हो, तो श्रावक के व्रतों का ही पालन करना चाहिए। कुछ प्रत्याख्यान अवश्य लेना चाहिए। प्रत्याख्यान से पाप रुकता है और आश्रव का निरोध होता है । निकाचित कर्म भी शिथिल हो जाते हैं। पाप कर्म का विपाक ही नहीं चारित्र की अनुमोदना भी होती है ।
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