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________________ योग शास्त्र [१३६ कन्ल नित्य क्रम से सामायिक लेकर बैठा था । अकस्मात् ही एक युवती ने उपाश्रय में प्रवेश किया। उसने आचार्य हीर सूरि जी म० को वन्दन करने के पश्चात सभी साधओं को वन्दन किया तथा अन्त में उपाश्रय के कोने में बैठे उस युवक को, जो कि प्रातःकाल में साधु के समान ही दिख रहा था-वन्दन किया। वन्दन करने के पश्चात जाते समय 'मत्थएण वंदामि' कह कर वह चल ही रही थी कि अकस्मात् ही उस युवक की दष्टि ऊपर को उठी और साश्चर्य वह देखता ही रह गया । न केवल उसने देखा, वह युवती भी आश्चर्य के साथ इस अकृत्य के लिए पश्चाताप कर रही थी। दोनों ने परस्पर दृष्टि मिलाई तो दोनों हो समझ गए। दो दिन पश्चात् उन दोनों का ही विवाह होने वाला था, परन्तु अब क्या हो सकता था। युवक पर इस क्रिया का बहत प्रभाव न पड़ा, परन्तु यवती के हृदय में इस कृत्य ने गहन चोट की। एक गृहस्थ को सविधि वन्दन ! और वह भी होने वाले पति को । गजब ढह गया। वंदन पति को होता है या गुरु को ? परन्तु पति भी तो गुरु हो सकता है। जिसे एक बार गुरु समझ कर वन्दन कर लिया, उस से विवाह ? असंभव ! असंभव !! वह युवती दृढ़ निश्चय कर चुकी थी, दीक्षा लेने का। २-३ घंटों में ही समस्त नगर में उस युवती की दीक्षा भावना की बात वायु वेग से फैल गई। बहुत लोग, अनेक महिलाएं उसे समझाने आईं, परन्तु उस का एक ही प्रश्न था, कि गुरु को पति कैसे बनाया जा सकता है ? इस प्रश्न के सामने सभी निरुत्तर थे। यवती ने यह भी स्पष्ट कह दिया, कि मैं तो दीक्षा ही धारण करूंगी। मेरा पति चाहे तो किसी अन्य से विवाह कर सकता है। कर्णोपकर्ण से बात युवक तक भी जा पहुंची। युवती का यह साहसिक कदम ! पत्नी के ये संस्कार । उस की यह पवित्रता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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