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________________ योग शास्त्र [ १३५ घर खाली होने को है, परन्तु आप की निद्रा पूर्ण न हो सकी । जिस दिन व्रतों की सांकल लग जाएगी। आप अपने माल के मालिक घोषित किए जा सकेंगे । चारित्र से बन्धन मुक्ति प्राप्त होती है | आश्रव तथा बंध का निरोध होता है एवं संवर तथा निर्जरा का प्रायण होता है । चारित्र के लिए पुरुषार्थ शील बनो । मैंने ऐसे अनेक श्रावक देखे हैं, जो १२ व्रतों को धारण करने के लिए ५० - ५० वर्षों से विचार कर रहे हैं । अभी तक साधुओं से १२ व्रतों का स्वरूप ही समझ रहे हैं। बहुत सोचने वालों के हाथ से करने का समय निकल जाता है । मैं उन से प्रायः कहता हूं, कि तुम जितने व्रतों को समझ चुके हो, उतने तो ले लो । झट से उत्तर मिलता है, बाद में सारे इकट्ठे लेंगे । मन का चोर जब बाहर निकले, तभी व्रत का साधु अन्दर प्रवेश कर सकता है । सदाचार – बाह्य आचार, विचार तथा व्यवहार सुधारना भी आवश्यक है । व्रतधारी या धार्मिक बन कर आचार को पवित्र बनाए रखना सरल होता है । उदाहरणतः किसी कन्या के लिए लोगों की दृष्टि से अपने आप को बचाते हुए बाज़ार में से निकल जाना कठिन है, जब कि विवाहिता को ऐसा भय प्रायः नहीं होता, क्योंकि वह पतिव्रता बन चुकी है अर्थात् 'एक पति' रूप व्रत को स्वीकार कर चुकी होती है । स्वीकृत व्रत, आचार पालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भले ही वह भय लोगां की ओर से हो अथवा पापी मन की ओर से हो । ब्रतधारी के विचार भी प्राय: स्वच्छ रहते है । विचारों की स्वच्छता के लिए उसे ग्रहीत व्रत की सहायता मिलती है। जिस मार्ग पर जाना ही निषिद्ध है, उसका विचार करने से क्या लाभ ? निषिद्ध मार्ग पर बच्चे ही जाया करते हैं, बुर्जुग तथा For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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