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योग शास्त्र
[१३३ पति का मार्ग ही मेरा मार्ग हो । मनोरमा की दीक्षा ने उदय सुन्दर तथा उसके २५ मित्रों के भावों को क्षण मात्र में परिवर्तित कर दिया। वे भी अब मुनि बन कर संयम के मार्ग पर प्रयाण कर चुके थे ।
पाठकगण ! इस से बड़ा आश्चर्य तो तब घटित हुआ, जब वज्रबाहु के पिता विजय राजा को यह बात ज्ञात हुई, तो वे तत्क्षण बोल उठे । “धन्य है वज्रबाहु को। जिस ने युवावस्था में ही विवाह की रात्रि से भी पूर्व जीवन के सार को प्राप्त कर लिया। सपत्नीक दीक्षा अंगीकार की। मुझे ऐसा विचार अभी तक क्यों न आया ? मैं वृद्ध हो कर भी अभी तक विषय वासना के पंक में आकंठ डूबा हआ हं।" विजय राजा भी दीक्षित हो गए।
चारित्र ग्राह्य है । श्रावक वही है, जो सर्व विरति चारित्र की भावना से ओतप्रोत है । यदि आप व्रत, पच्चक्खाण, चारित्र न भी कर सकें, तो भी भावना तो होनी ही चाहिए ।
उदयन मंत्री ने अपने मन में दीक्षा की भावना को संजोए रखा था तभी तो अन्तिम समय में उसे युद्ध भूमि में मुनि दर्शन की इच्छा हुई।
अभय कुमार की चारित्र ग्रहण की भावना थी, तभी तो उस ने श्रेणिक से आज्ञा प्राप्त करने का तरीका ढूंढ निकाला। मेघ कुमार ने चारित्र लिया, तो श्रेणिक सम्राट तथा रानियां अपने प्रिय के पथ के अवरोधक न बन सके। नमि राजर्षि की चारित्र की आकस्मिक उत्कट भावना ने उस की नेत्र पीड़ा को अपाकृत करके उस का चारित्र पथ प्रशस्त किया। चारित्र-भ्रष्ट नंदीषण इसी भावना के कारण पुनः संयम जीवन को स्वीकार कर सका । सुन्दरी की भावना ने उसे ६० हजार वर्ष तक आयंबिल करके भरत चक्रवर्ती से छुटकारा पाने का मार्ग बताया। क्या मां सुनन्दा के भिन्न-भिन्न प्रकारीय प्रलोभन वज्र स्वामी
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