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________________ १३२] सम्यक् चारित्र अपनी बुद्धिमत्ता पर रोना आ रहा था। विवाह के समय दीक्षा की बात कर बैठा । “नहीं उदय सुन्दर ! तेरी कोई गलती नहीं, तु तो मेरी चिर संचित भावना को पूर्ण करने में सहायक बना है। अब मेरा निश्चय अटल है।" दीक्षा की आज्ञा ससराल वाले दे नहीं सकते थे, परन्तु यह तो अनायास ही भावना सफल हो गई । "जीजा जी ! मेरी बहिन मनोरमा का क्या होगा? तुम्हारी जीवन संगिनी का क्या होगा ?" उदय सुन्दर की वाणो में दयनीयत थी, आंखों में अश्रु थे तथा कदमों में कंपन था। मनोरमा के भावी जीवन की कल्पना करके ही वह कांप उठा था। मेरी बहिन पति के होते हुए विधवा ! धिक्कार है मुझे ! ____ "उदय सुन्दर ! घबराने की आवश्यकता नहीं । तू क्षत्रिय पुत्र है, अपने वचन का ध्यान कर। यह अश्रु-धारा तेरे वीरत्व को कलंकित कर रही है। मनोरमा के भविष्य की चिता मत कर । यदि वह कुलीन पतिव्रता स्त्री होगी, तो पति के पथ का अनुसरण करेगी, अन्यथा मैं उस के कल्याण की कामना करता हूं। मनोरमा सब कुछ सुन रही थी, परन्तु वह नवोढ़ा वहां पर लज्जा के कारण कहती क्या ? अब वे मुनिराज के आसन के समीप थे । वन्दन के पश्चात् वज्रबाहु ने दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। वज्रबाह अणगार बन गए। उदय सुन्दर मनोरमा से क्षमा याचना करता है, “बहिन ! मैंने तेरा सुहाग छीन लिया। मेरे जैसा पापी कौन होगा ?" यह दृश्य मनोरमा के हृदय पर पत्थर रखने के समान था । उस की चिरसंचित भावनाएं तथा कल्पना लोक का सुख धूलिसात् हो चुका था। परन्तु वह एक कुलीन राज कन्या थी। उस ने स्थिति को गहराई से जाँचा, हृदय को थामा, कल्पित स्वप्नों को चूर-चूर कर डाला तथा त्वरित ही पति के पथ पर चलने का निश्चय कर लिया। वह बोली, “पति की धर्म पत्नी होने के नाते मेरा यही कर्त्तव्य है, कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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