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सम्यक् चारित्र जहां कपट है, वास्तविकता को छुपाने की तथा अवास्तविकता को ) प्रकट करने की भावना है, वहाँ धर्म का वास नहीं होता। जहां सरलता होती है, वहीं पर धर्म का वास होता है । व्रत या चारित्र के अंगीकार के पश्चात् निष्कलंक पालन अत्यावश्यक है । ज्ञानी पुरुष जन, मन रंजन आडंबर पूर्ण चारित्र को चारित्र के नाम से अभिहित नहीं करते तथा न ही उसे मोक्ष का कारण मानते हैं। स्वयं को अन्यों से उत्कृष्ट तथा चारित्र पात्र बताने का प्रयास करना भी आडंबर से कुछ अधिक नहीं है । वर्तमान में श्रमण समाज में अनेक शिथिलताएं आ चुकी हैं। चारित्र की जो साधना हमें करनी चाहिए, हम नहीं कर पा रहे । कुछ विवशता है, कुछ युग का प्रभाव है तथा कुछ गृहस्थों के दूषित अन्न का प्रताप है। भगवान् गौतम के अप्रमादी चारित्र की तुलना में हमारा चारित्र " कछ प्रतिशत ही होगा। परन्तु ये शिथिलताएं चारित्र में मन को न लगाने से श्रमण संघ में प्रविष्ट हुईं। व्रत, नियम, पच्चक्खाण को मन से लेना चाहिए। व्रत मन के गहन तल से उत्पन्न होना चाहिए । जबरदस्ती तथा आडंबर से व्रत नहीं लेना चाहिए।
वर्तमान में १२ व्रतों को स्वीकार करना तो दूर, श्रावक के १२ व्रतों का नाम भी किस को आता है ? बहुधा व्याख्यान में मैं श्रावक के प्रथम व्रत का नाम पूछ लेता हूं, तो वही चिरपरिचित उत्तर श्रुति-गोचर होता है-'प्राणातिपात विरमण व्रत, वे बेचारे शायद जल्दी बताने के चक्कर में आगे 'स्थल' शब्द लगाना ही विस्मृत कर देते हैं।
साधुओं के तथाकथित शिथिलाचार में भी गृहस्थों का अन्यायोपार्जित धन (Black Money) ही कारण है । आप का जैसा धन, वैसा ही अन्न । जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन । साधुओं के पतन का मुख्य कारण भी गृहस्थों का दूषित अन्न ही है।
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