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________________ योग शास्त्र [१२३ जब व्रत नियम में मन ओत प्रोत हो जाएगा, तभी चारित्र से मुक्ति की संभावना हो सकती है । आज का मानव, चारित्र से अधिक, ज्ञानवादी बनता जा रहा है । एक तरफ हमारी क्रियाएं गुरु पूजा, देव पूजा, सामायिक प्रतिक्रमण, माला, जाप, प्रार्थना है तथा एक तरफ ज्ञान की उपासना है । परन्तु ज्ञान तथा चारित्र का एकीकरण नहीं हो पाता है । चारित्र की आवश्यकता : - ज्ञान परम आवश्यक है, परन्तु मात्र मार्ग के ज्ञान से व्यक्ति लक्ष्य तक न पहुंच पाएगा। स्वयं चलना तो पड़ेगा ही । ज्ञान प्राप्त करने वाले, बातें करके लोगों को ठगते हैं, परन्तु चारित्रवान् व्यक्ति ऐसा कभी न करेगा । मन भर बातों से कण भर आचरण श्रेष्ठ है । एक श्रेष्ट वक्ता एक 'अहिंसा सम्मेलन' का मुख्य अतिथि बनाया गया । उस ने अपने अतिथि भाषण में 'अहिंसा' विषय पर बहुत अच्छा भाषण दिया, परन्तु ग्रीष्म ऋतु के कारण शरीर में से निसृत प्रस्वेद को पौंछने के लिए जब उस ने जेब में से रूमाल निकाला, तो साथ में अंडा भी जेब में से निकल कर स्टेज पर गिर गया । लिखने की आवश्यकता नहीं, कि उस का कितना उपहास हुआ होगा । ऐसे भी असीम ज्ञानी व्यक्ति इस विश्व में हैं, जो रात्रि का विहार या प्रातः की नवकारसी या छोटा सा त्याग नहीं कर सकते । परिणामतः उन का जीवन आदर्श नहीं कहा जा सकता । " ज्ञानस्य फलं विरतिः " ज्ञान का फल विरति ( पापों का त्याग - आचरण) ही है । 1 / एक लेखक ने एक पुस्तक लिखी । पुस्तक का नाम बहुत मजेदार था, 'पैसे कमाने के १००० उपाय ।" संभवतः आप सब को भी इस की एक प्रति चाहिए। यह पुस्तक उस लेखक ने अपने अनुभव तथा विशाल अध्ययन से लिखी थी । उस लेखक को पैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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