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सम्यग्यदर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान गुणों को, खुले में नहीं कहने योग्य व्यक्ति
को ही कहना चाहिए। मिथ्यात्वी संसर्ग : सामान्य श्रद्धालुओं के लिए मिथ्यात्वी-अन्य. .
धर्मी का सम्पर्क निषिद्ध है, जिससे वे कतकों से धर्म से विचलित न हो जाएं। छोटे वृक्षों के लिए वाड़ होती है, बड़े वृक्षों के लिए नहीं।
अतः यह निषेध विद्वानों के लिए नहीं। . जब प्रत्येक क्रिया का फल होता है तो पारमार्थिक क्रियाओं का फल क्यों न होगा ? इह लोक में भी धर्म का फल कषायहीनता, विषयोपशांति, शम, आनन्द, सुख मिलता है तो परभव में क्यों न मिलेगा? जिस वृक्ष के पत्ते आदि हैं, उस के फल का भीअनुमान होता है।
सम्यक्त्व के ५ भषण - १. स्थिरता : स्वयं को तथा दूसरों को भी अन्य धर्मों के
आंडबर-चमत्कार से दूर रख के स्थिर
करना। २. प्रभावना : धर्म की शोभा में अभिवृद्धि। ३. भक्ति : गुणवान् की विनय तथा उस की सेवा। ४. जिन शासन कुशलता : जैन धर्म के तत्व ज्ञान में दक्षता । ५. तीर्थ सेवा : सिद्धाचल आदि तीर्थों की यात्रा तथा जंगम
(साधु आदि) तीर्थों की सेवा। सच्चा सम्यकत्वी मात्र श्रद्धालु ही नहीं होता, वह चारित्र की प्राप्ति का प्रयास भी अवश्य करता है। चतुर्थ-गुण स्थानवर्ती सम्यकत्वी श्रावक भी संयम आदि के लिये तत्पर रहता है तथा विरति का पालन करने वाले की अनुमोदना करता है । इसी दशा में वर्तमान वह कभी न कभी चारित्र को आंतरिक रूप में पा ही लेता है।
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