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योग शास्त्र
परम्परया नहीं, सीधे मोक्ष प्राप्त करता है । निश्चय सम्यग् दर्शन में आत्मा ही देव, आत्मा ही गुरु तथा आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही धर्म माना जाता है । व्यवहार सम्यक्त्वी को आभ्यन्तर सम्यग् दर्शन की प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए । यह शुद्ध निश्चय सम्यग् दर्शन वस्तुतः मान्यता का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है ।
प्राचीन जैनाचार्यों का कथन है, कि व्यवहार को छोड़ने से शासन का नाश होता हैं, जब कि निश्चय को छोड़ देने से तत्व काही नाश हो जाता है ।
शुद्ध व्यवहार सम्यक्त्वी, निश्चय सम्यक्तवी भी हो सकता है । सम्यक्त्व के महान् वरदान को पा कर अनादि मिथ्या दृष्टि भी महादेवी के समान एक अन्तर्मुर्हत मात्र में ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है ।
इस प्रकार योग के द्वितीय भेद के रूप में सम्यग् दर्शन का निरूपण करने के पश्चात् कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् योग के तृतीय भेद के रूप में सम्यक चारित्र का निरूपण करते हैं
सम्यक्तव के पांच दूषण 20
शंका : धर्म तथा तत्वों में शंका | शंका होने पर समाधान के लिए प्रयत्न न करना । प्रयत्न न करने पर भी समाधान न मिले, तो मन में सन्देह रखना ।
कांक्षा : मंत्र तंत्रादि को देख कर अन्य धर्मों की अभिलाषा
करना ।
विचिकित्सा : धर्म सम्बन्धी फल में सन्देह करना । मिथ्यात्वी प्रशंसा :
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अन्य धर्मियों की प्रशंसा से अन्ध श्रद्धा वाला प्राणी श्रद्धा भ्रष्ट हो कर अन्य धर्म को स्वीकार कर सकता है, अतः अन्य दर्शनों के
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