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सम्यग्यदर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान शैवकुल में उत्पन्न कुमारपाल सम्राट को जैन धर्म का उपासक बनता हुआ देख कर ब्राह्मण लोग व्याकुल हो गए। उन्होंने एक वैदिक साधु को जा कर समस्त वृत्तांत सुनाया। उस साधु ने कुमारपाल को इन्द्रजाल दिखाया, कि कुमारपाल के माता-पिता नरक में बैठे हुए कुमारपाल से कह रहे हैं । जब से तूने जैन धर्म को स्वीकार किया है, तब से हम नरक का दुःख भोग रहे हैं । अतः तू जैन धर्म को छोड़ दे।"
कुमारपाल सन्दिग्ध मन वाला होकर जैनाचार्य हेमचन्द्र सूरि जी के पास आया तथा उस दृश्य के विषय में बताया। हेमचन्द्राचार्य ने सिद्धि के बल पर कुमारपाल को यह दृश्य बताया, कि कुमारपाल के माता पिता स्वर्ग में बैठे यह कह रहे हैं कि "हे कुमारपाल ! तू जब से जैन धर्मी बना है, तब से हम स्वर्ग में बहुत सुखी हैं, अतः जैन धर्म को कभी मत छोड़ना।
सम्राट ने यह सब देख कर गरुदेव से पूछा, कि गरुदेव ये दोनों दृश्य तो सत्य नहीं हो सकते । वास्तविकता क्या है ? कृपया बताइए।
गुरुदेव ने कहा, "कुमारपाल ! वह नरक वाला दृश्य भी इन्द्र जाल था तथा यह दृश्य भी इन्द्र जाल ही है । तेरे माता पिता ने जैसा कर्म किया है, वे वैसी गति में चले गए होंगे। इस में तुझे कुछ भी सोचना नहीं चाहिए।"
यहां भी कुमारपाल ने गुरुदेव के वाक्य को श्रद्धा से स्वीकार किया। यदि गुरु के वचन में श्रद्धा न हो, तो वहां व्यवहार सम्यगदर्शन कैसे रह सकता है ।
"तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शन" अर्थात् तत्वों के अर्थ की श्रद्धा सम्यग् दर्शन है । यह व्यवहारिक सम्यग्दर्शन अवश्य ही मानव के आंतरिक सम्यकत्व का द्योतक है, परन्तु निश्चय सम्यग् दर्शन तो
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