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________________ ११०] सम्यग्यदर्श : मोक्ष का प्रथम सोपान कोई शास्त्र या पर्व अलौकिक नहीं होता। महज़ दृष्टि के सद्असद् होने से ही वह अलौकिक या लौकिक बन जाता है । - ये आश्रवाः ते निर्जरा हेतवः ये अनाश्रवाः ते आश्रवाः । सम्यक शास्त्राणि मिथ्या दृष्टेरपि मिथ्या भवंति, सम्यग्दृष्टस्तु मिथ्या शास्त्राण्यपि सम्यञ्चि । ___ मैं तो लिखना चाहूंगा कि संक्रान्ति जैसे लौकिक पर्व को अलौकिक बना कर आचार्य वल्लभ. ने समाज पर बहत बड़ा उपकार किया, हमें भी दशहरा, होली, लोहड़ी आदि पर्वो को अब लोकोत्तर पर्व का जामा पहनाने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा उसे देखने वाले, उसकी प्रशंसा करने वाले, क्या मिथ्यात्व के पोषक नहीं कहे जायेंगे ? जहां सम्यग्दृष्टि है, मिथ्या में भी सत्य का अन्वेषण है, वहां पर चारित्र व ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है। जहाँ सम्यगदष्टि नहीं, आग्रहपूर्ण ऐकांकिक बुद्धि है, वहां कुछ भी प्राप्त हो नहीं सकता। ज्ञान का सार सम्यकत्व : आचार्यों ने कहा, "नाणं नरस्स सारं, नाणंस्स वि सारं होई सम्मत्तं।" मनुष्य का सार ज्ञान है तथा ज्ञान का सार सम्यक्त्व है । बड़े-बड़े शास्त्र तो पढ़ लिए, परन्तु श्रद्धा की प्राप्त न हो पाई, तो समस्त ज्ञान व्यर्थ है। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्याय में भगवान महावीर ने जो दुर्लभ चतुष्टय बताया, उस में भी श्रद्धा का स्थान तीसरा है । . चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणि हु जंतुणो। माणुस्सुत्त सुई सद्दा, संजमंमि अ वीरिअं॥ प्रथमतः मनुष्यत्व प्राप्त हो, फिर धर्म का श्रवण हो, फिर उस पर श्रद्धा हो । संयम में पराक्रम का स्फुरण, तो पश्चाद्वर्ती तथ्य है । तत्वार्थकार श्री उमास्वाति जी ने 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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