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सम्यग्दर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान दृष्टि के चारित्र के दोष लग जाने की आपवादिक स्थिति का द्योतक है । जिसे सम्यग् दर्शन के प्रति पूर्णतः विश्वास न हो, उस के लिए चारित्र के इस आपवादिक मार्ग का उल्लेख नहीं किया गया है। दर्शनहीन तो ऐसे वचनों को सुविधावाद मान कर चारित्र-भ्रष्ट भी हो जाएगा।
जैसे--इसी योग शास्त्र के अन्त में हेमचन्द्राचार्य योगी को विचलित करने वाले विषय का आस्वादन लेकर योग में स्थिर होने का जो निरूपण करते हैं, वह भी योगी के लिए ही आपवादिक है, सामान्य योगी के लिए नहीं। भोगी व्यक्ति तो ऐसे वचनों से भोग में और अधिक लिप्त हो जाएगा। __ तात्पर्य यह है, कि सम्यग् दर्शन की विशुद्धि प्रथमतः हो जानी चाहिए। तदनुरूप कृत चारित्र साधना अर्थ क्रियाकारी-मोक्षदायक बन सकेगी। सभी साधनाओं का एका सम्यग् दर्शन ही है । दर्शन शून्य होने से अभव्य प्राणी चारित्र के प्रभाव से नवगैवेयक तक जाने के प्रश्चात भी अनन्त संसार में भ्रमण करता है तथा श्रेणिक एव कृष्ण जैसे व्यक्ति चारित्र के अभाव में भी क्षायिक समकित के द्वारा मोक्ष के अधिकारी बनेंगे, यह तायिक सम्यग्दर्शन की ही महिमा है।
भगवान महावीर को अंबड परिब्राजक ने कहा, "प्रभो! मैं राजगृही जा रहा हूं, कोई कार्य-सेवा हो तो बताइ । कृतार्थ महावीर को किसी से क्या काम हो सकता था। वे तो मोह रहित थे। हमारे जैसे साधुओं को तो आप लोगों से पंजाब या गुजरात आते जाते कई कार्य हो सकते हैं। परन्तु महावीर ने सुलसा को धर्म लाभ कहलाया। भगवान महावीर के धर्म लाभ का मूल्य श्रद्धा का मूल्य था। अंबड़ परिब्राजक श्रावक ने सुलसा सती की परीक्षा ली, परन्तु श्रद्धा का कोष श्रद्धा से रहित कैसे हो सकता है । सच्ची श्रद्धा भगवान को शीघ्र ही पहचान लेती है।
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