________________
योग शास्त्र
[१०७ जीवन का सार बताया है।
सम्मविट्ठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरे किंचि ।
अप्पो सि होई बंधो, जेण व निद्धं धसं कुणई ॥ सम्यग् दृष्टि जीव यद्यपि पाप किंचिन्मात्र करता है, परन्तु उस का पाप-बंध स्वल्प होता है । क्योंकि वह सच्ची दृष्टि का धारयिता है। पाप करते हए उसे पाप समझता है । असत्य आचरण के समक्ष उसे असत्य के रूप में ही देखता है अपनी कपट नीति की सफलता के रूप में नहीं। बेइमानी को बेइमानी कहता है । वह उसे कला या Art नहीं कहेगा । वह स्वयं को गलत कहेगा । स्वयं को गलत कहना एवं सम्यक ज्ञान की ओर अग्रेसर होने का प्रयत्न करना, वह भी सम्यग्दर्शन का लक्ष्य है। आचार्यों ने एक सर्वोपरि बात कही है
__दंसणभट्टो भट्ठो, दसणभट्टस्स नत्थि निव्वाणं ।
सिझंति चरण रहिया, दसण रहिया न सिझति ॥ उन्होंने दर्शन के साथ चारित्र की तुलना करते हुए स्पष्ट कहा है, कि चारित्र के बिना मुक्ति हो सकती है, सम्यग्दर्शन के बिना नहीं। क्योंकि चारित्र से भ्रष्ट व्यक्ति दर्शन धारी मार्ग का ज्ञाता हो कर अपनी गल्ती. को देख कर पुनः चारित्रवान् बन सकता है, परन्तु सम्यक दर्शन से भ्रष्ट हो कर वह भ्रष्ट ही रहेगा । सन्मार्ग से दूर होता चला जायेगा। ___ आषाढ़ाचार्य की कथा में भी यही माहात्म्य स्वीकार किया गया है, कि छः कृत्रिम बच्चों का बध करके अहिंसा महाव्रत को तोड़ने वाले चारित्र भ्रष्ट आचार्य भी श्रद्धा या सम्यग्दर्शन के भ्रष्ट न होने के कारण सत्पथ पर पूनः स्थापित हए । चारित्र के बिना कार्य सिद्धि हो सकती है, परन्तु सम्यग् दर्शन के बिना तो खेल • ही खत्म हो जाता है। ऐसी उद्घोषणा का आज के युग में विपरीत अर्थ ग्रहण न किया जाए। यह निरूपण तो किसी सम्यग
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org