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________________ १०६ सम्यग्यदर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान संसार के मूल कारण राग तथा द्वष जिस महापुरुष के , समाप्त हो गये हैं, वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो, तीर्थंकर हो या कोई भी क्यों न हो, उसे नमस्कार हो। ___ इस अयोगव्यवच्छेदिका में श्री हेमचन्द्राचार्य ने स्पष्ट कहा है किन श्रद्धयैव त्वपि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु। यथावदाप्तत्व परीक्षया तु, त्वमेव वीर ! प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥ हे प्रभो ! मैंने आप को परीक्षा करके स्वीकार किया है, रागादिभाव से नहीं। महर्षि व्यास भी "ऋतस्य पंथाः दुर्गमाः दूरत्यथाः" कह कर सत्य के पथ को दुष्प्राप्य बताते हैं तथा "धर्मस्य तत्व निहितं गुहायां" सदृश वाक्यों से जन-जन को उद्बोधित करते हैं, कि धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो प्लेट पर रख कर तुम्हें दे दी जाए । उसे महर्षि लोग अन्धकूप में या अन्धकार मय गफा में डाल देते हैं, जो स्वयं पुरुषार्थ करेगा तथा परखेगा वही उसे प्राप्त कर सकेगा। . धर्म एवं सत्य किसी के देने से प्राप्त नहीं होता । गहन कूप में छलांग लगानी ही पड़ेगी। जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। ___ मैं बौरी ढूँढत डरी, रही किनारे बैठ॥ "सत्य के प्रति” सद् दृष्टि होनी चाहिये। सत्य के प्रा आग्रह एवं सामादर होना चाहिए। एतद् द्वारा सम्यग्दर्शन द होगा। यदि सम्प्रदाय एवं मान्यता को ही सत्य तथा अन मान्यताओं को असत्य मान लिया जाए, तो वहां सम्यग्दर्शन . स्थिर रहना कठिन होता है। सम्प्रदायवाद के विवादों से रह कर सत्य की गंवेषणा करनी ही होगी। सम्यग्दृष्टि का आचरण : शास्त्रकारों ने सम्यग् दर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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