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योग शास्त्र
[१०५ भी न जाना हो, फलतः उन पर श्रद्धा भी न हो, वह भी सम्यग् दृष्टि हो सकता है । अनिवार्यता मात्र यह है, कि वह कषायों तथा विषयों का उपशम करके शमादि गुणों से विभूषित हो तथा "आत्मा है" आदि आस्तिक्य लक्षण से युक्त हो। _____ सत्य की परीक्षा करो-'सत्य सो मेरा' । सत्य की प्राप्ति के प्रति सतर्क हो जाओ, सत्य की प्राप्ति के प्रति दो-चार मिनिट का विलम्ब भी क्षन्तव्य नहीं हो सकता । सम्प्रदाय के अन्दर रह कर संप्रदाय की मान्यताओं का पालन करते हए क्लेश न करे। आप ने सत्य को परखने का कभी प्रयत्न किया ? सत्य को परखना पड़ता है, जैसे घड़े को परखना पड़ता है । यहाँ पर आचार्य हरिभद्र तथा आचार्य हेमचन्द्र इस विषय में उदाहरणीय हैं ।
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिला दिपु । .
युक्मितद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ आचार्य हरिभद्र ने स्पष्टतः अपने अनुयायियों को दिग्दर्शन कराया, कि भ० महावीर को पक्षपात से मानने का कोई कारण नहीं तथा कपिल आदि महर्षियों को द्वेष के वशीभूत होकर त्याज्य समझने का भी कोई कारण नहीं। जहां युक्ति या तर्क है, वहां मेरी सम्मति है। यदि ऐसा न होता, तो गण-पक्षपाती हरिभद्र कभी भी महर्षि कपिल को भवव्याधिभिषग्वरः (संसार रोग के श्रेष्ठ वैद्य) कह कर सम्बोधित न करते। ___ आचार्य हेमचन्द्र के ये २ श्लोक भी देखिएयत्र यत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीत दोष कलुषः स चेद् भवान् एकएव भगवन् नमोऽस्तुते ॥
अर्थात-हे परमेश्वर ! तू जहां जिस समय में जैसा है, मैं तुझे वहीं पर, उसी समय, उसी रूप में नमस्कार करता हूं। (धर्म, वेष या नाम का कोई प्रश्न मुझे स्वीकार्य नहीं) ॥१॥
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