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________________ योग शास्त्र १०३ संप्रदाय का दृष्टिराग सज्जनों के लिए भी दुरुच्छेद्य है, तथा यही दृष्टिराग मोक्ष मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है । इस दृष्टि से आज के जमाने में अधिकांश आचार्य, साधु तथा भक्त इसी प्रेतबाधा से ग्रस्त पाये जाते हैं । जिसे जो साधु, सम्प्रदाय या नियम मन प्रिय लगता है, वह उसे ही पकड़ कर बैंचता रहता है। इसी के आधार पर जैन धर्म भी चार सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। गरु वल्लभ ने जैन एकता, समन्वय तथा अजैनों के साथ समभाव का पाठ सिखा कर हमें दृष्टिराग के बन्धन से मुक्त किया। दृष्टिराग को छोड़ कर 'सत्यगंवेषणा' तथा 'गुणग्राहिता' के अनुयायी बनो। सम्प्रदाय की दीवारों को तोड़कर “नमो अरिहंताणं" के मूलरूप 'गुणवाद' का जाप करो। यदि नमस्कार मंत्र से गुण पूजा नहीं सीखी, तो नमस्कार का जाप पूर्णतः निरर्थक है। दृष्टिराग से आप को संकीर्णता का राष्ट्रीय अलंकरण यानी पदमभूषण (?)मिल सकता है । इस जागतिक हानि के अतिरिक्त आत्मिक गुणों के कोश का नींव पत्थर सुदृढ़ न रह पाएगा एवं वर्तमान युग में सार्वज्ञिक पूजा न होगी। __कई भक्ति तो अन्यमतानुयायी साधुओं को साधु भी मानने को तैयार नहीं हैं, उन्हें वन्दन करने में उन्हें संभवतः पाप लगता है। क्या यह सम्यग्दर्शन का लक्षण है। शम तथा धार्मिक सहिष्णुता से रहित सम्यग्दर्शन व्यवहारिक हो सकता है, नैश्चयिक कदापि नहीं। सम्यग्दर्शन की राज्य सभा में सांप्रदायिकता, धर्म के जनून तथा कदाग्रह को कोई स्थान नहीं हैं। काम राग, स्त्री के प्रति वासना, स्नेह राग, परिवार तथा धनादि के प्रति मोह का त्याग सरल है। कठिनतम है दृष्टि राग का त्याग । नमो लोए सव्वसाहूणं में आप सभी साधुओं को अनायास ही नमस्कार कर देते हैं, फिर आप इच्छानुसार करें या न भी करें। एक दिन गुरु वल्लभ के पास आ कर एक धर्माध व्यक्ति कहने लगा, कि मैं तुम्हें साधु नहीं मानता। इस के अतिरिक्त वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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