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सम्यग्यदर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान
या तथाकथित धर्म क्यों न हो, वहां निःसंकोच जाना चाहिए । अपनी दृष्टि को सत्यग्राही बनाओ । आचार्य श्री समन्तभद्र की 'अनेकांतोऽप्यनेकांतः' की उक्ति को आज जैन समाज विस्मृत कर रहा है । इसी का दुष्परिणाम है, कि आज अनेकान्तवादी ही धर्म के विषय में जितने एकांतग्राही हैं, उतना संभवतः अन्य कोई नहीं । यदि महावीर, उनके सिद्धांत, उनके मोक्ष मार्ग, उनके तत्व तथा उन के हितोपदेश को समझना है, तो विशुद्ध अनेकांत दृष्टि को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्थान दो, अन्यथा सभी धर्म क्रियाएं करते हुए भी आप तेली के बैल की तरह एक कदम भी आगे न बढ़ पाओगे ।
हम जन्म- गत संस्कारों से जो कुछ ग्रहण करते हैं, उससे हमें राग हो जाता है । उन में सत्यता का अंश मात्र होता है । 'मेरा सो सच्चा' का सिद्धांत स्वीकरणीय नहीं । जिस गधे की पूंछ को पकड़ लिया, वह सब से श्रेष्ठ है । उस का त्याग नहीं हो सकता । गधे की पूंछ को पकड़ने वाले का क्या उपहास नहीं होगा ? जो मैंने पकड़ा, वही सही है। तुमने जो पकड़ा, वह उचित नहीं | ऐसा मिथ्या आग्रह व्यक्ति को कुछ भी सुनने-समझने से वंचित रखता है । वह पूर्व धारणा के प्रति विश्वस्त होता है । यावत् उसे परमेश्वर की वाणी मान कर चलता है । बन्धुवर ! यदि आप भी ऐसे हैं, तो कृपया सावधान हो जाएं । कहीं आप असत्य के मार्ग को ही तो दिग्भ्रांत हो कर सत्य नहीं मान बैठे ? आत्म निरीक्षण कीजिए । आप भगवान महावीर के मतानुयायी उस शिक्षण को विस्मृत कर बैठे हैं ।
श्री हेमचन्द्राचार्य के कथनानुसार
काम राग - स्नेह रागावीषत्कर निवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ॥
काम - राग तथा स्नेह-राग का त्याग सरल है, परन्तु
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